पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३

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। रामचरित मानस । ३२ ऊपर कह आये हैं कि नाम प्रभु के समान और प्रभु उसके सेवक के समान हैं। अपनी ही कही हुई बात को समझ कर फिर उसका निषेध करना कि कौन बड़ा और कौन छोटा है, यह कहने में अपराध होगा 'उताक्षेप अलंकार है ! रूप नाम के अधीन है अर्थात् नाम मालूम रहने पर खोजने से वह रूप दिखाई देता है, पर विना नाम के रूप का ज्ञान नहीं होता। रूप बिसेष नाम बिनु जाने । करतल गत न परहिँ पहिचाने । सुमिरिय नाम रूप बिनु देखे । आवत हृदय सनेह बिसेखे ॥३॥ रूप कैसा ही बढ़ कर हो; पर विना नाम जाने; वह हाथ ही में क्यों न प्राप्त है, किन्तु पहचान में नहीं पाता । रूप के बिना देखे ही नाम स्मरण करने से मन में अधिक प्रीति उत्पन्न होती है ॥ ३॥ नाम-रूप-गुन अकथ कहानी । समुझत सुखद न परति बखानी ॥ अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी ॥४॥ नाम और रूप के गुणों की कथा कहनां सामथ्र्य से बाहर है, वह समझने में श्रानन्द दायक है, पर कही नही जा सकती। निगुण-ब्रह्म और सगुण-ब्रह्म के बीच में नाम सन्दर साक्षी है, दोनों का विशेष रूप से ज्ञान कराने में चतुर दुभापिया है ॥ ४॥ दो-राम-नाममनि-दीप धरु, जीह देहरी-द्वार। तुलसी भीतर बाहरहुँ, जौं चाहसि उँजियार ॥२१॥ तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि तू बाहर भीतर उजेलो चाहता है, तो रामनाम रूपी मणि का दीपक जीम रूपी दरवाजे के चौखट पर रख ॥ २१॥ चौ०-नाम जोह जपि जागर्हि जोगी। विरति बिरच्चि प्रपज वियोगी। ब्रह्म सुखहि अनुभवहिँ अनूपा । अकथ अनामय नाम न रूपा ॥१॥ नाम को जीम से जप कर योगी लोग ब्रह्मा के प्रपञ्च से अलग होकर वैराग्य में सचेत रहते हैं । वे अनुपम ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हैं, जो विना नाम और विना रूप का अकथ- नीय एवम् निर्दोष है ॥१॥ जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ । नाम जीह जपि जानहि तेऊ ॥ साधक नाम जपहिं लव लाये। होहिं सिद्ध अनिमांदिक पाये ॥२॥ जो गृढ़-गति (आत्मा-परमात्मा के भेद ) को जानना चाहते हैं, वे भी जीभ से नाम को जप कर जानते हैं । लौ लगा कर. साधक नाम जपते हैं और अणिमा आदि सिद्धियों को पाकर सफल-मनोरथ होते हैं ॥२॥ जपहिँ नाम जन आरत भारी। मिटहि कुसङ्कट होहिं सुखारी ॥ राम भगत जग चारि प्रकारा । सुकृती चारिउ अनघ उदारा ॥३॥ अत्यन्त दुस्खी भक्तजन नाम जपते हैं, उनके चुरे संकट मिट जाते और वे सुखी होते हैं। संसार में चार प्रकार के रामभक्त हैं, वे चारों पुण्यात्मा, निष्पाप और श्रेष्ठ हैं ॥ ३ ॥ .