पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८४६

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! ७७७ चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । त्रेता ब्रह्म मनुज तनु धरिहीं। तासु नारि निसिचर-पति हरिहीं । तासु खोज पठइहि प्रभु दूता। तिन्हहिँ मिले रौं होब पुनीता ॥en उन्होंने कहा-प्रेतायुग में परमात्मा मनुष्य देह धारण करेंग उनकी माया को राक्षस- राज हर लेगा। उनकी खबर के लिए प्रभु रामचन्द्रजी दूत (वानरवृन्द ) भेजेंगे, उनसे मिलने पर तू पवित्र होगा ॥४॥ जमिहहि पड्ड करसि जनि चिन्ता। तिन्हहिँ देखाइ दिहेसु त सीता ॥ मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू । सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ॥३॥ चिन्ता न कर, तेरे पल जम आवेगें, र उन्हें सीताजी को दिखा देना। मुनि की वह पाणी आज सत्य हुई, मेरा वचन सुन कर तदनुसार स्वामी का कार्य करो (अवश्य सफलता होगी। ॥५॥ गिरि-त्रिकूट ऊपर बस लका । तहँ रह रावन सहज असङ्का ॥ तह असोक-उपबन जहँ रहई। सीता बैठि सोच-रत अहई ॥६॥ त्रिकूट पर्वत के ऊपर लकानगरीयसी हुई है, स्वभाव से निर्भय रावण वहाँ रहता है। उसमें जहाँ अशोकवाटिका है वहाँ सीताजी रहती है, वे बैठी हुई सोच में पड़ी हैं ॥६॥ दो०-मैं देखउँ तुम्ह नाही, गीधहि दृष्टि अपार । बूढ मयउँ न त करतेउँ, कछुक सहाय तुम्हार ॥२८॥ मैं उन्हें देखता हूँ गीधों की निगाह बहुत दूर की होती है, परन्तु आप सब नहीं देख सकते । क्या करूँ? मैं बूड्ढा हो गया, नहीं तो तुम्हारी कुछ सहायता करता ॥ २ ॥ सहायता न कर सकने के कारण 'सम्पाती के हृदय में चिन्ताजन्य भनामक विषाद सवारी भाव' है। चto-जो नाँघइ सतजोजन सागर। करद सो राम-काज मति-आगर । भोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम-कृपा कस भयउ सरीरा ॥१॥ जो कोई बुद्धि का स्थान सौ योजन ( चार सौ कोस ) समुद्र लाँधेगा, वही रामचन्द्रजी के कार्य को सिद्ध करेगा रामचन्द्रजी की कृपा से मेरा शरीर कैसा (नवीन पलों से युक्त) हो गया। मुझे देख कर मन में धीरज धरिए ॥१॥ पापिउ जाकर नाम सुमिरहीं । अति-अपार-मव-सागर तरहौं । तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदय धरि करहु उपाई ॥२॥ पापी भी जिनका नाम स्मरण कर के अत्यन्त अपार भवसागर से पार हो जाते हैं। तुम उनके दूत हो, कादरता छोड़ कर रामचन्द्रजी को हदय में रख कर उपाय करी ॥२॥ अस काह, उमा गीध जब गयऊ । तिन्ह के मन अति विस्मय अयऊ ॥ निज निज बल सब काहू भाखा । पार जाइ कर संसय राखा ॥३॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा । ऐसा कह कर जब गीध चला गया; तब बन्दरों के मन में ! 1