पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८४८

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड शक्ति सन्मुख गामिनः' परन्तु यदि यही बात ठीक होती तो हनूमानजी जा कर कैले लौट आते ? (३) अहद कहते हैं-मैं राजकुमार , जय स्वामी की कोई खास आशा नहीं हुई, तब केवल दुताई करके लौट आना ठीक न होगा। उत्रित तो यह है कि रावण का वध कर के जानकोजी को साथ ले कर लौट आऊँ। परन्तु रावण साधारण योद्धा नहीं है, कदाचित उसने मुझे मार डाला, तष सन्देश ले कर कौन लौटेगा ? इससे लौटने में सन्देह है। (४) अङ्गद कहते हैं- चलती र रामचन्द्रजी ने मुद्रिका प्रदान कर पवनकुमार को आशा दी है। मेरे लिये प्रभु की आज्ञा नहीं है । यदि मैं स्वामी की आशा के विरुद्ध लङ्का में जाऊँगा तो अवश्य ही असफलता होगा, फिर कौन मुंह लेकर लौटूंगा यही मन में सन्देह है। जैसे अन्य बन्दरी ने अपना अपना पल कहते हुए पार जाने में संशय रख छोड़ा था, वैसे अगद ने उन लोगों से कुछ अधिक बल अर्थात् पार जाना कह कर लौटने में सन्देह रख छोड़ा। (६) कोई कोई यह भी कहते हैं कि वाली और रावण से मित्रता थी, कहीं प्रेम के बन्धन में फंस कर रावण के अधीन न हो जाऊँ । अथवा लङ्का में रूपवती स्त्रियाँ भरी हैं और मैं युवा हूँ, कहीं उनके प्रेम में नं फस जाऊं। परन्तु ये दोनों उक्तियाँ अत्यन्त गहित हैं, ऐसा कहना अङ्गद की योग्यतो और निश्छल स्वामिभक्ति पर कलङ्क लगाना है। इसी तरह की और भी बहुत सी बात कही जाती हैं, उनमें कुछ का उल्लेख किया गया है, विश पाठक जिसको ठीक समझे, उसको स्वीकार करें। कहइ रिच्छपति सुनु हनुमाना । को चुप साधि रहेड बलवाना । पवन-तनय बल पवन समाना । बुधि-बिबेक-बिज्ञान-निधाना ॥२॥ जास्ववान ने कहा- हे हनुमानजी मुनिए, आप बलवान हो कर क्यों चुप सांध.रहे हैं। माप पवन के पुत्र पवन ही के समान बल, बुद्धि, ज्ञान और विज्ञान के स्थान हैं ॥२॥ कवन से काज कठिन जग माहीं । जो नहिँ तात हाइ तुम्ह पाहीं ॥ राम-काज-लगि तव अवतारा । सुनतहि भयउ पर्वताकारा ॥३॥ हे वात. संसार में कौन सा वह कठिन काम है। जो श्राप से न होलकता हो। तुम्हारा जन्म ही रामचन्द्रजी के कार्य के लिए हुआ है, यह सुनते ही हनूमानजी पर्वताकार (विशाल शरीरंवाले) हो गये ॥३॥ रामचन्द्रजी के कार्य के लिए तुम्हारा अवतार है, यह सुन कर हनुमानजी का प्रसन्नता से फूल उठना उत्साह स्थायी भाव है। कनक-बरन-तन तेज बिराजा । मानहुँ अपर गिरिन्ह, कर राजा ॥ सिंहनाद करि बारहि-बारा । लीलहि नाँधउँ जलधि अपाय Men सुवर्ण के रण के समान शरीर में तेज विराजमान है, ऐसे मालूम होते हैं.मानों दूसरे प्रवर्त. राज (सुमेरु) हैं। बारम्बार सिंह के समान गर्जना कर के अपार समुद्र को मैं खेल ही में लांघ जाऊँगा ॥ ..रामचन्द्रजी के कार्य करने का उत्साह स्थायीभाष है. जाम्बवान के वचन उहीपन विभाव और प्रसन्न होना, बल सम्माषण आदि मनुभाव है। उग्रता, अमर्षादि संधारी भाषा द्वारा परिपुष्ट होकर 'वीर रस' हुआ है। ।