पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७६८ रामचरित-सानस। नूतन 1 जनु . अलोक ले लिया ॥१२॥ 1 किसलय अनल समाना । देहि अगिनि तन करहि निदाना ॥ देखि परम बिरहाकुल सीता । सेो छन कपिहि कलप सम बीता ॥६॥ तेरे नवीन कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं, अग्नि दे कर मेरे शरीर को अन्त कर दे। सीताजी को विरह से अत्यन्त व्याकुल देख वह क्षण हनूमानजी को कल्प के बराबर बीता ॥६॥ सभा की प्रति में 'देहि अगिन अनि करहि निदाना, पाठ है। वहाँ इस तरह अर्थ होगा कि-"मुझे अग्नि देने में तू किसी तरह का फारण मत ढूँढ़" । सो-कपि करि हृदय बिचार, दोन्हि मुद्रिका डारि तथ । अङ्गार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥१२॥ तष हनूमानसी ने (अच्छा अवसर) मन में विचार कर मुंदरी नीचे गिरा दो। सीताजी को ऐसा मालूम हुआ मानों अशोक ने श्रङ्गार दिया हो, प्रलभता से उठ कर हाथ में चौ--तका देखी मुद्रिका मनोहर । राम-नाम-अडित अति सुन्दर ॥ चकित चितव सुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदय अकुलानी ॥१॥ तब उस मनोहर मुद्रिकी को देखा कि राम नाम से चिहित बड़ी ही सुन्दर है। मुंदरी को पहचान कर विस्मय से उसकी ओर देखने लगी, हर्ष और विषाद से हृदय में अकुला उठीं ॥१॥ आश्चर्य, हर्ष', विषाद और व्याकुलता कई एक भावों का साथ ही हृदय में उदय होना 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है, आश्चर्य यह कि-मुद्रिका रामचन्द्रजी से अलग कैसे हुई ? हर्ष-स्वामी के वस्तु का दर्शन होना। विषाद-अनिष्ट की सम्भावना से, व्याकु- लता--क्या रावण ने छल से प्रभु को जीत लिया? यह ध्वनि विचारने पर प्रकट होती है, सहसा नहीं। इस लिये 'अस्फुट गुणीभूत व्यज्ञ' है। जीति को सकइ अजय रघुराई । माया त असि रचि नहिं जाई । सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥२॥ रघुनाथजी अजीत हैं उन्हें कौन जीत सकता है ? और माया से ऐसी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में नाना प्रकार के विचार कर रही हैं, उसी समय हनूमानजी मधुर वचन बोले ॥२॥ सीताजी मन में शङ्का निवारणाथ तरह तरह के विचारों का उत्पन्न होना 'वितर्क सञ्चारीभाव है। रामचन्द्र गुन बरनइ लागा। सुनतहि सीता कर दुख भागा ॥ लागी सुलइ सवन मन लाई । आदिहु तँ सब .कथा सुनाई ॥३॥ रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया।