पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८८४

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । १११ बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । मइ सहाइ सारद मैं जाना । जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचइ मूढ़ साइ रचना ॥२॥ धवन सुनते ही हनूमानजी मन में मुस्कुराये और विचारने लगे कि मैं समझता हूँ सरस्वती सहायक हुई (तभी रावण ने ऐसी आशा दी है)। रावण की आशा को सुन कर 'मूर्ख राक्षस वही रचना रचने लगे ॥२॥ पूंछ में भाग खगना स्वीकार योग्य नहीं है, परन्तु आगे कार्य की सुगमता विचार उसे अंगीकार योग्य मानना 'अनुशा 'अलंकार है। यहाँ 'मूर्ख' में शाब्दी व्या है कि ये मूढ़ यह नहीं जानते हैं कि इसी रचना से हम लोगों का सर्वनाश होगा। रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पॅछि कोन्ह कपि खेला॥ कौतुक कहँ आये पुर-बासी । मारहि चरन करहिँ बहु हाँसी ॥३॥ हनूमानजी ने खेल किया,उनकी पूंछ इतनी बढ़ी कि नगर भर में वस्त्र, पो और तेल नहीं रह गया। तमाशा देखने के लिये नगर निवासी श्राये, वे हनूमानजी को लात मार कर वहुत हसी करते हैं ॥३॥ लोग शक करते हैं कि क्या इतनी विशाल लकानगरी में वस्त्र, घी तेल नहीं रह गया ? उत्तर- जय हनुमानजी ने ऐसा खेल ही किया, तब वस्त्रादि का घट जाना कौन से आश्चर्य की बात है। यहाँ कवि का उद्येश्य पवनकुमार की महिमा प्रदर्शित करने का है। कोई कोई इस शङ्का की निवृत्ति के लिये अर्थ ही धुमा कर करते हैं कि "हनूमानजी ने वनधी तेल के लिये पंछ बढ़ा कर जो खेल किया, उससे लका-नगर ही नहीं रह गया"। पर यह अर्थ यथार्थ नहीं है। बाजहिँ ढाल देहिँ सब तारी। नगर, फेरि पुनि पूँछि प्रजारी ॥ पावक जरत देखि हनुमन्ता । भयउ परम लघुरूप तुरन्ता ॥४॥ ढोल धज रहे हैं और सब हाथ की ताली पीटते हैं, इस तरह नगर में घुमा कर फिर पूँछ को जला दिया । अग्नि को जलती देख कर हनूमानजी ने तुरन्त अत्यन्त छोटा रूप बना लिया नगर में फिराने का तात्पर्य यह है कि जिन घरों के राक्षस भट मारे गये हैं, उनके कुटुम्बी बन्दर की दुर्दशा देख कर छाती ठण्डी करेंगे। निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारी । भई समीत निसाचर-नारी ॥५॥ (छोटा रूप होने से बन्धन ढोला पड़ गया, इससे बन्धन से) निकल कर हनूमानजी सुवर्ण की अंटारियों पर चढ़ गये, उन्हें देख कर राक्षसों की खियाँ भयमीत हुई ॥५॥ दो-हरि-प्रेरित तेहि अवसर, चले मरुत उनचास । अहहास करि गर्जा, कपि बढि लाग अकास ॥२५॥ भगवान की प्रेरणा से उस समय उनचासों पवन चले, यह सुयोग देख हनूमानजी खिलखिला कर हसे और गान करके बढ़ कर आकाश में लग गये ॥२५॥