पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८८७

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रामचरित मानस । 4 कहेउ तात अस मार प्रनामा । सब प्रकार प्रभु. पूरनकामा । दीनदयाल मिरद सम्लारी। हरहु नाथ मम सङ्कट भारी॥२॥ । सीताजी ने कहा-हे तात ! स्वामी से मेरा प्रणाम निवेदन कर ऐसा कहना कि भाप सव तरह पूर्णकाम (इच्छा रहित) है। परन्तु हे नाथ ! अपनी दीनदयालुता की नामवरी स्मरण कर मेरे बड़े सङ्कट को दूर कीजिये ॥२॥ तात सक्र-सुत कथा सुनायेहु । बान प्रताप प्रभुहि समुझायेहु ।। मास दिवस महँ नाथ न आना । तो पुनि सोहि जियत नहिं पावा।३।। हे तात इन्द्र के पुत्र (जयन्त ) का वृत्तान्त सुना कर स्वामी को बाण का प्रताप सम- झाना और कहना कि हे ! यदि आप महीने हिन में न आयेंगे तो फिर मुझे जीवित न पागे ॥३॥ जयन्त की कथा सुनाने का तात्पर्य यह कि उसको रामचन्द्रजी और जानकीजी के सिवाय तीसरा कोई नहीं जानता था । वाण प्रताप-समझाने में ध्वनि है कि चरण में चोंच मारने पर ऐसा बाण मारा कि वह तीनों लोकों में भागता फिरा, पर कहाँ उसकी रक्षा न हुई । रावण मुझे प्रत्यक्ष हर ला कर नाना तरह का कष्ट देता है, इसकी भोर इतनी उपेक्षा क्यों कर रहे है । कहु कपि केहि बिधि राखउँ प्राना । तुम्हहूँ तात कहत अब जाना। तोहि देखि खीतल भइ छाती। पुनि सो कहँ सोइ दिन साइ राती॥४॥ कहो हनूमान ! मैं किस तरह प्राण रक्खेंगी, हे पुत्र ! अब तुम भी जाने को कहते हो। तुझे देखकर छाती ठण्डी हुई, फिर मुझको वही दिन और वही रात होगी ॥४॥ वही रात और वही दिन कहने में व्याकुलता व्यजित. होती है, यह व्यतार्थ वाच्यार्थ के बराबर होने से 'तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग' है। दो०-जनक-सुतहि समुझाइ करि, बहु बिधि धीरज दीन्ह । चरन-कमल सिर नाइ कपि, गवन राम पहिं कीन्ह ॥२०॥ जानकीजी को बहुत तरह से समझा कर धीरज दिया। फिर हनुमानजी उनके चरण- कमलों में प्रणाम करके रामचन्द्रजी के पास चले ॥२॥ चो-चलत महाधुनि गजैसि भारी । गर्भ स्रवहिँ सुनि निसिचर-नारी। नाँघि सिन्धु एहि पारहिआवा । सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ॥१॥ चलते समय महाध्वनि से भारी गर्जना की,उसे सुन कर राक्षसियों के गर्भ गिर गये। समुद्र लाँध कर इस पार आये और वानरों को किलकारी का शब्द - (हर्ष सूचक ध्वनि) सुनाये ॥१॥ .