पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

$1.29 ॥ रामचरितमानस । हनूमानजी के उपकार से स्वामी के मन में जो सोच हुआ और उससे भूरि भूरि कृत. शता प्रकाश कर ऋणी बने, इससे हनुमाजी के हदय मे नीड़ा, हर्ष, चपलता, भावेग-वांस आहि सञ्चारीभादों का उदय होना 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है। श्रीड़ा-स्वामी प्रदर विशेष मान-मर्यादाले । हर्ष-स्वामी को प्रसन्नता लेचिपलता-अत्यन्त प्रेम से आवेग- मुझे मान न उत्पन्न हो, इस भय से। बास-चित्त की विहलता से प्रेम में मग्न होकर स्वामी के पाँव पर पड़ना और माहि त्राहि पुकारना, इन दोनो अनुभावों से उपयुक भावों की पुष्टि होती है। जौ-बार बार प्रभु चहिँ उठाना । प्रेम भगन तेहि उठय न भावा । मा कर पङ्कज कपि के सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥१॥ प्रभु रामचन्द्रजी बार धार उठाना चाहते हैं, किन्तु प्रेम में मग्न हनूमानजी को उठना नहीं सुहाता है। स्वामी का कर-कमल हनुमानजी के मस्तक पर है, उस दशा को स्मरण कर शिवजी प्रेम में मग्न हो गये ॥१॥ सावधान मन करि पुनि सङ्कर । लागे कहन कथा अति सुन्दर कापि उठाइ प्रा हृदय लगावी । कर गहि परम निकट बैठावा ॥२॥ फिर शङ्करजी मन को सावधान करके अत्यन्त सुन्दर कथा कहने लगे। प्रभु राम. चन्द्रजी ने हनुमान को उठा कर इदय ले लगा लिया और हाथ पकड़ कर बहुत समीय में बैठाया ॥२॥ कहु कपि रावन पालिस लङ्का । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बङ्का । प्र प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ॥३॥ रामचन्द्रजी पूछने लगे-हे हनुमान ! कहो, लापुरी रावण द्वारा रक्षित है और उसको किला बहुत ही टेड़ा (दुर्गम) है, उसको तुमने किस तरह जलाया ? स्वामी को प्रसन जान कर हनुमानजी अभिमान रहित वचन बोले ॥३॥ साखामृग के बाड मनुसाई । साखा तें साखा. पर जाई । नाँघि सिन्धु हाटकापुर जारा ।निसिचर-गन बधि विपिन उजारा ॥४॥ बन्दर का बड़ा पुरुषार्थ यही है कि एक डाल से कूद कर दूसरी डाली पर चला जाय। समुद्र लाँघ झर सुवर्ण की नगरी को जलाया, राक्षसगण का संहार किया और बगी. चा उजाड़ा-- सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कळू मोरि प्रभुताई ॥५॥ हे रघुनाथजी ! वह सम आप के प्रताप ने किया, स्वामिन् ! इसमें मेरी कुछ बड़ाई नहीं है ॥५॥ हनूमानजी ने अपने पुरुषार्थ और बड़ाई का इसलिये निषेध किया कि इसको धर्म 'प्रभु प्रताप' में आरोपित करना अभीष्ट है। यह 'पर्यस्तापह ति भलंकार' है। 2