पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस । चो०-उहाँ निसाचर रहहिं ससङ्का । जब तें जारि गयउ कपि लड्डा । निज निजगृह सब करहि विचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥१॥ यहाँ जब से हनुमानजी लडा जला गपे, तभी से राक्षस भयभीत रहते हैं। सब अपने अपने घरों में विचार करते हैं कि अब राक्षस-वंश का बचाव नहीं है ॥१॥ भय से प्रजावर्ग का प्रस्त होना त्रास समचारी भाष, है। जासु दूत बल करनि न जाई । तेहि आये पुर कवन मलाई । दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी । मन्दोदरी अधिक अकुलानी ॥२॥ जिस के दुत का पराक्रम वर्णन नहीं किया जा सकता, उनके नगर में आने से कौन सी भलाई होगी ? नगर-निवासियों की बात दूतियों के मुख से सुन कर मन्दोदरी बहुत घबरा गई ॥२॥ दूत की बड़ाई से मालिक की प्रशंसा व्यजिजत होना 'व्याजस्तुति अलंकार' है। रहसि जारि कर पति पद लागी । बोली बचन नीति-रस पागी॥ कन्त करम हरि सन परिहरहू । भार कहा अति हित हिय घरहू ॥३॥ एकान्त में हाथ जोड़ कर पति के पार्यों में पड़ी और नीति रस से मिली हुई बात योली। हे कन्त ! श्राप भगवान से वैर करना छोड़ दीजिये, मेरा कहना अत्यन्त हितकारी जान कर हृदय में रखिये ॥३ समुकत जासु दूत कइ करनी। सवहिं गर्भ रजनीचर-घरनी॥ तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कन्त जौँ चहहु भलाई :agn जिल के दूत की करनी लमझते ही राक्षसियों के गर्भ गिर जाते हैं। हे प्राणनाथ ! यवि. अपना कल्याण चाहते हो तो मन्त्रियों को बुला कर उनकी स्त्री भेज दो ॥ दूत को करनी ले रामचन्द्रजी की प्रशंसा व्यजित होना 'व्याजस्तुति अलंकार' हैं। तब कुल कमल-विपिन दुखदाई । सीता सीत-निसा सम आई । सुनहु ना सीता बिनु दीन्हे । हितन तुम्हार सम्भु अज कोन्ह॥५॥ तुम्हारे कुल रूपी कमल-वन को दुःख देनेवाली सीता शीतकाल (जाड़े) की रात्रि के समान आई है। हे नाथ ! सुनिये, सीताजी को विना दिये श्राप की भलाई शिवजी और ब्रह्माजी के फरने से न होगी ॥५॥ . दो-राम बान अहिगन सरिस, निकर निसाचर भेक । जबलगि असत न तबलगि, जतन करहु तजि टेक ॥३६॥ रामचन्द्रजी के बाण लमूह सर्प के समान हैं और राक्षसों के झुण्ड मेढक रूप हैं। जब तक वे ग्रसते नहीं हैं, तबतक जिद छोड़ कर उपाय करो ॥ ३६॥