पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०१

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रामपरित-मानस । पहले विभीषण ने विशेष धमनीतियुक्त रावण के कल्पाण की बात कही, फिर सामान्य से उसका समर्थन करते हैं कि पुलस्त्यजी ने अभी अपने शिष्य से कहला भेजा, वही बात मैं ने कही अर्थान्तरन्यास अलंकार' है। चौo-माल्यवन्त अतिसचिन सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥ तात अनुज तब नीति-विभूषन। सो उर धरहु जो कहत विभीषन ॥१॥ माल्यवान नाम का एक बड़ा चतुर मन्त्री था, विभीषण की बात सुन कर वह बहुत प्रसन्न हुआ और चोला । हे तात ! आप के छोटे भाई नीति के भूषण हैं, जो विभीषण कहते हैं वही हृदय में रखिये ॥१॥ रिपु उतकर्ष कहत सठ दोज । दूरि न करहु इहाँ है कोऊ ॥ माल्यवन्त गृह गयउ बहारी। कहइ विभीषन पुनि कर जारी १२॥ रावण ने कहा-ये दोनों मूर्ख शत्रु की बड़ाई करते हैं, यहाँ कोई है। इन को दूर क्यों नहीं कर देते ? तब माल्यवान अपने घर चला गया और विभीषण फिर हाथ जोड़ कर कहने लगे॥२॥ सुमति कुमति सच के उर रहही । नाथ पुरान निगम अस कहहीं। जहाँ सुमति तह सम्पति नाना । जहाँ कुमति तहँ त्रिपति निदाना ॥३॥ हे नाथ ! सुबुद्धि और कुबुद्धि संघ के हत्य में रहती हैं, पेसा पुराण और घेद कहते हैं। जहाँ सुमति रहती है वहाँ नाना प्रकार की सम्पत्ति और जहाँ कुबुद्धि होती है वहाँ अन्त में विपशि निवास करती है ॥३॥ पहले विभीषण ने गूढोक्ति द्वारा विनती की थी, परन्तु रावण को उनकी बातें नहीं रुची, तब प्रत्यक्ष सीधे शब्दों द्वारा उपदेश देने लगे। तव उर छुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥ कालराति निसिचर-कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥२॥ तुम्हारे हृदय में कुचुद्धि से प्रतिकूलता टिक गई है, इसी से हित को अनहित मान रहे हो और शत्रु पर प्रीति करते हो । सीताजी राक्षस-कुल की कालरात्रि हैं, उस पर इतनी घड़ी प्रीति !॥४॥ दो-तात चरन गहि माँगउँ, राखहु मार दुलार । सीता देहु राम कह , अहित न हुोइ तुम्हार ॥४०॥ हे तात ! मैं आप के पाँव पकड़ कर माँगता हूँ, इतना मेरा दुलार रखिये । सीता राम- चन्द्रजी को दे दीजिये जिसमें आप का अमल न हो ॥ ४०॥ चौ०-बुध-पुरान-बुति-सम्मत बानी। कहीं बिभीषन नीति बखानी ॥ सुनत दसानन उठा रिसाई । खल ताहि निकट मृत्यु अब आई ॥१॥ विभीषण ने व्यवहार की रीति बखान कर पण्डित, पुराण और वेद से स्वीकृत पचन .