पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१३

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६० ८४० रामचरित मानस । रावण ने जैसा व्यवहार हनूमानजी के साथ किया था, सुग्रीव ने भी दूतों के प्रति. वैसी ही श्राक्षा प्रदान की। बहु प्रकार मारन कपि लागे । दीन पुकारत तदपि न त्यागे । जो हमार हर काला। तेहि कौसलाधीस कै आना ॥३॥ बहुत तरह से वानर उन्हें मारने लगे, यद्यपि वे दीनता से पुकारते हैं तथापि बग्दर छोड़ते नहीं (मारते हो जाते) हैं । दूतों ने पुकार मचाई कि जो हम लोगों के नाक-कान काटे उसको कोशलाधीश भगवान की शपथ है ॥ ३ ॥ वानरों ने कहा नहीं कि नाक कान काट लो, परन्तु दृतों ने गुहार मचाई । गुहार मचाने ही से प्रश्न की कल्पना होती है । कोशलाधीश की सौगन्द देने में दूतों का गूढ़ अभिप्राय यह है कि मेरे नाम ज्ञान करने से बच जायगे । यह कल्पित प्रश्न का 'गूढोत्तर अलंकार' है। सुनि लछिमल सब लिकट बोलाये । दया लागि हँसि तुरत छोड़ाये। रावन कर दीजेहु यह पाती । लछिमन बचन बाँचु कुलघाती ॥४॥ पुकार सुन कर लक्ष्मणजी को दया लगी सव को समीप बुलाया और हँस कर तुरन्त छुड़ा दिया । लक्ष्मणजी ने दूतों से कहा-यह चिट्ठी रावण के हाथ में देना और कहना कि अरे कुल का नाशक ! लक्ष्मण के वचनों को पढ़ः ॥ ४ ॥ दो०-कहेहु मुखागर मूढ़ सन, मम सन्देस उदार । सोता देह मिलहुन त, आवा काल तुम्हार ॥५२॥ उस मूर्ख से मेरा यह श्रेष्ट सन्देशा जवानी कहना कि सीताजी को दे कर मिला, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया ॥५२॥ चौo--तुरत नाइ लछिमन पद माया। चले दूत बरनत. गुन-गाथा.॥ कहत राम जस. लका आये । रावन चरन लील तिन्ह नाये ॥१॥ तुरन्त लचमणजी के चरणों में मस्तक नवा कर दूत चले, रास्ते में गुणावली वर्णन करते और रामचन्द्रजी का यश कहते लङ्का में आये, उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाया ॥१॥ बिहँसि दसानन पूछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलातो . पुनि कहु खबर बिभीषन केरी। जाहिं मृत्यु आई अति नेरी ॥२॥ रावण ने हँस कर बात पूछी-रे शुक ! अपनी कुशलता क्यों नहीं कहता.? फिर विभी- षण की खपर कहै, जिसकी मौत अत्यन्त समीप आ गई है॥२॥ करत राज लङ्का सठ त्यागो । होइहि जव कर कोट अभागी ॥ पुनि कहु भालु-कीस 'कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई niu उस मूर्ख ने राज्य करते हुए लङ्का को त्याग दिया, वह प्रभागा जी का कीड़ा होगा। फिर भालु-बन्दरों की सेना का हाल कहै, जो कठिन काल की प्रेरणा से चल कर आई है ॥३॥।