पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१६

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६३ पजुम सोपान, सुन्दरकाण्ड । दो०-सहज सूर कपि भालु सब, पुनि सिर पर प्रभु राम । रावन काल कोदि कह, जीति सकहिं संग्राम ॥५५॥ सव चन्दर और भालु सहज हा शूरवीर हैं, फिर उनके सिर पर मालिक (पक्षक) राम- चन्द्रजी हैं। हे रावण ! वे फरोड़ों काल को भी युद्ध में जीत सकते हैं ॥१५॥ यहाँ रावण के तीसरे प्रश्न का उत्तर समाप्त हुआ, अब चौथे प्रश्न का उचर देता है। चौ०-राम तेज-बल-बुधि विपुलाई । सेप सहस-सत सकहिं न गाई ॥ सक सर एक साखि सत सागर । तव मातहि पूछेउ नय-नागर ॥१॥ रामचन्द्रजी के प्रताप, वल और बुद्धि की अधिकता को सौ हजार शेष भी नहीं कह सकते (जिन्हें दो हज़ार जीम है, फिर एक मुख से मैं कैले वर्णन कर सकता हूँ)। सैकड़ों समुद्र को वे एक बाण से सुखा सकते हैं, तो भी नीति में चतुर रघुनाथजी ने श्राप के भाई से पूछा (कि समुद्र कैसे उतरना होगा ? उन्हे ने कहा बिनती कीजिये) ॥१॥ तासु बचन सुनि सागर पाहीं । माँगत पन्थ कृपा मन माहीं ॥ सुनत बचन बिहँसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कोसा ॥२॥ उनकी बात सुनकर संक्षुद्र से रास्ता मांग रहे हैं, रामचन्द्रजी के मन में दया है (वे चाहते हैं कि लेना पार हो जाय और सागर को मर्यादा बनी रहे)। यह पचन सुनते ही रावण हंसा और बोला कि जब पन्दर सहायक हैं तभी ऐसी बुद्धि है ॥ २ ॥ यहाँ पाँचवें प्रश्न का उत्तर समाप्त हुआ। सहज भीरु कर बचन दिढ़ाई । सागर सन ठानी अचलाई ॥ मूढ़ मृषा का करति बड़ाई । रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥३॥ स्वाभाविक डरपोक बातों की बढ़ता दिखा कर नादान चालकों की तरह समुद्र से ठाने है। इससे मैं शत्रु की बुद्धि और बल का थाह पा गया, अरे मूर्ख ! तू क्या उस की भूटी बढ़ाई करता है | सचिव सभीत बिभीषन जाके । विजय बिभूति कहा जग ताके । सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ॥४॥ उरोंक विभीषण जिसका मन्त्री है, उसको संसार में विजयलक्ष्मी कहाँ से मिल सकती है ! दुष्टता के वचन सुन कर दूत को क्रोध बढ़ माया, मौका समझ कर उसने चिट्ठी निकाल कर दी net रामानुज दीन्ही यह · पाती। माथ बँचाइ जुड़ावहु छाती। बिहँसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥५॥ एक ने कहा- हे नाथ | रामचन्द्रजी के छोटे भाई ने यह पत्रिका दी है, इसको पढ़या