पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१८

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्डे । जनक-सुता रघुनाथहि दोजे । एतना कहा मोर प्रभु कीजै । जब तेहि देन कहा बैदेही । चरन प्रहार कील संठ तेही ॥४॥ हे प्रभो ! एतना मेरा ही कहना कीजिये कि जानकीजी को रधुनाथजी को दे दीजिये। जब उसने जनकनन्दिनी को देने को कहा, तब दुष्ट रावण ने उसे लान मारा ॥४॥ नाइ चरम सिर चला लो तहाँ। कृपासिन्धु रघुनायक जहाँ । करि प्रनाल निज कथा सुनाई। राम कृपा आपनि गति पाई ॥५॥ वह रावण के चरणों में सिर नवा कर वहाँ चलो जहाँ दयासागर रघुनाथजी थे। प्रणाम करके अपनी कथा कह सुनाई और रामचन्द्रजी की कृपा से अपनी गति पाई ॥५॥ रिषि अगस्ति के साप भवानी । साच्छस भयउ रहा मुनि ज्ञानी ॥ बन्दि राम-पद बारहि बारा । मुनि निज मानम कहँ पग धारा ॥६॥ शिवजी कहते हैं-हे भवानी ! शुकशानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हुआ था। बार धार रामचन्द्रजी के चरणों में प्रणाम करके मुनि अपने आश्रम को चले गये ॥६॥ शुक की कथा अध्यात्म रामायण में इस प्रकार है-ये ब्रह्मनिष्ठ मुनि थे। एक बार यज्ञ करके अगस्त्य मुनि को निमन्त्रित किया । शुकमुनि से बैर रखनेवाला वज्रदंष्ट्र नाम का राक्षस अगस्त्यजी का रूप धारण कर भोजन से पूर्व ही मिला और कहा कि सामिष भोजन पनवाना । उधर शुकमुनि की स्त्री को माया से छिपा कर श्राप उसका रूप ले कर सामिष पाक बनाया और उसमें मनुष्य का मांस मिला दिया। अगस्त्यमुनि भोजन करने बैठे, उन्हें तपोषल से मालूम हो गया कि नरमांस है। इस राक्षसीपन से क्रुद्ध होकर शुक्र को राक्षस होने का शाप दिया ।शुक के प्रार्थना करने पर कहा यद्यपि तुम निदोष हो, पर पहले नहीं बोले, अब तुम्हें राक्षस होना ही पड़ेगा। उस शरीर से तुम्हें परमात्मा रामचन्द्रजी के दर्शन होंगे, तब शाप मुक्त होकर अपनी शिपाओगे। दो०-बिनय न लानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीति । बोले राम सकोप तब, भय दिनु होइन नीति ॥५॥ तीन दिन बीत गये, पर अड़ समुद्र ने विनती नहीं स्वीकार की। तब रामचन्द्रजी क्रोध से वचन बोले कि बिना भय के प्रीति नहीं होती॥ १७ ॥ चौ०-लछिमन बान सरासन आनू । सोखउँ मारिधि बिसिख-कृसानू ॥ साठ सन बिन यकुटिल सन ग्रीती । सहज कृपन सन सुन्दुर नीती ॥१॥ हे लक्ष्मण ! धनुष-बाण ले श्रानो, मैं अग्नि-बाण से समुद्र को मुसा दूंगा। दुष्ट से बिनती, कपटी से प्रीति, स्वाभाविक कजूस से सुन्दर नीति कहना ॥१॥ ममता रत सन ज्ञान कहानी । अति लोभी सन बिरति बखानी॥ क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा । असर बीज बये फल जथा ॥२॥ • अज्ञानी से ज्ञान की कथा, अत्यन्त लाभी से वैराग्य वर्णन, क्रोधी से सौम्यता और