पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९२

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, प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ४१ सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मारि मति स्वामि सराही। कहत नसाइ होइ हिय नीकी। रीझत राम जानि जन जी की ॥२॥ सज्जनों से सुन कर, शास्त्रादि को देख कर और सुन्दर हृदय के नेत्रों से निरीक्षण करके जान पड़ा कि जैसी भक्ति मेरी बुद्धि में है, वह स्वामी द्वारा सराही गई है। कहने में भले ही बिगड़ जाय, किन्तु हदय में अच्छी हो तो रामचन्द्रजी भक्तों के मन की (प्रीति ) जान कर प्रसन्न होते हैं।॥२॥ पहले विशेष बात कही कि सुन कर, देख कर और हृदय के नेत्रों से निहारकर यह मालूम हुआ है कि जैसी भक्ति मेरी मति में है, उसकी स्वामी ने श्रीमुख से सराहना की है। इसका सामान्य से समर्थन कि कहते न बने तो न सही, हृदय की प्रीति अच्छी हो तो उसे पहचान कर रामचन्द्रजी प्रसन्न होते हैं 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है । गुटका में भगति भोरि मति स्वामी सराही पाठ है। वहाँ अर्थ होगा कि-"अज्ञात मति की भक्ति को भी स्वामी ने सराही है।" रहति न प्रभु चित चूक किये की। करत सुरति सय बार हिये की । जेहि अघ बधेउव्याध इव बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी के मन में (सेवकों के ) चूक करने की सुध नहीं रहती, वे सौ सौ बार उनके हृदय की. (प्रीति की) याद करते हैं। जिस पाप से बाली को ब्याध की तरह (छिप कर मारा ) फिर सुग्रीव ने वही किया ॥३॥. छोटे भाई की स्त्री जो कन्या के समान थी, बाली ने उसे पतीभाव से माना, इस अप- राध से उसे वध किया । सुग्रीव ने भी वो वही अपराध किया कि जेठे भाई की स्त्री जो माता के समान थी, उसको अपनी जोरू बना ली । इन देनिों वाक्यों में असत की एकता प्रथम निदर्शना अलंकार' है। सोइ करतूति बिभीषन केरी । सपनेहुँ से न राम हिय हेरी ॥ ते । भरतहि · अटत सनमाने । राज-सभा रघुबार बखाने ॥ वही करनी विभीषण की थी, पर रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी अपने मन में उनके दुराव- रणों की ओर निगाह नहीं की। बल्कि भरतजी से मिलते समय रघुनाथजी ने उनका सत्कार करके राजदरबार में बखान किया ॥४॥ दो०-प्रभु तरु तर कपि डार पर, ते किय आपु समान। तुलसी कहीं न राम से, साहिब सील-निधान ॥. पभु रामचन्द्रजी पेड़ के नीचे और बन्दर डाली पर विराजमान ! इतनी बड़ी गुस्ताखी कि खामी ज़मीन पर और सेवक वृक्ष पर अर्थात् सिर पर चढ़ कर बैठे । उनको अपने बराबर पना दिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि रामचन्द्रजी के समान शीलनिधान खामी कहीं कोई नहीं है। ६