पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३२

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. । पष्ट सोपान, लङ्काकाण्ड । चौ०-कहहिँ सचिव सठ ठकुरसाहाती । नाश्च न पूर आव एहि भाँती ॥ बारिधि नाँघि एक कपि आना। तासु चरित मन महँ सब गाना ॥१॥ हे नाथ ! ये मूर्ख मन्त्री मुंहदेखी याते कहते हैं, इस तरह पूरा नहीं पड़ेगा। एक बन्दर समुद्र लाँध कर आया था, उसकी लीला सप मन में गाते हैं ॥१॥ छुधा न रही तुम्हहिँ तब काहू । जारत नगर कस न धरि खाहू ॥ सुनत नीक आगे दुख पावा। सचिवन्ह अख मत प्रभुहि सुनावा॥२॥ तब क्या तुम लोगों में किसी को भूख नहीं थी ? नगर जलाते समय उसे पकड़ कर क्यों नहीं खा गये हे स्वामिन् ! जो सुनने में अच्छा लगे; पर धागे चल कर दुःख प्राप्त हो, इन मस्त्रियों ने आप को ऐसी ही सलाह सुनाई है।॥ २॥ जेहि बोरीस बँधायउ हेला । उतरेउ सेन-समेत सुबेला ॥ सो भनु मनुज खाब हमलाई । बचन कहहिँ सत्र गाल फुलाई ॥३॥ जिन्होंने खेल ही में समुद्र धंधा दिया और सेना के सहित सुबेल-पर्वत पर आ उतरे हैं। भाइयो। उन्हें मनुष्य कहते हो और सब गाल फुला कर यह बात कहते हो कि हम खा जायगे ||३|| 'सुवेला, शब्द में श्लेष अलंकार है। कवि इशित अर्थ के अतिरिक्त अच्छे मुहूर्त का भी अर्थ प्रकट होता है। तात बचन मम सुनु अति आदर । जनि मन गुनहु मोहि करि कादर। प्रिय बानी जे सुनहि जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहही ॥४॥ हे पिताजी ! आप मेरी वात अत्यन्त श्रादर से सुनिए और अपने मन में मुझे डरपोक न सममिए । संसार में ऐसे बहुत मनुष्य हैं जो प्रिय वाणी कहवे और जो सुनते हैं ॥४॥ ॥ व्यचन परम-हित सुनत कठोरे । सुनहि जे कहहिँ ते नर प्रभु थोर। प्रथम बसीठ पठव सुनु नीती । सीता दे करहु पुनि प्रीती ॥५॥ जो वात सुनने में कठोर परन्तु अधिक भलाई की हो, हे राजन् ! इस तरह जो सुनते और कहते हैं वे मनुष्य थोड़े हैं। सुनिये, नीति तो यह है कि पहले दूत भेजिए, फिर सीता को दे कर प्रीति (सुलह कर लीजिए १५॥ दो-नारि पाई फिरि जाहि जाँ, तो न बाढ़इय रारि । नाहि त सनमुख समर-महि, तात करिय हठि मारि ॥ यदि स्त्री पा कर लौट जाँय तो तकरार न बढ़ाये। हे तात! जय वे इतना करने पर भी न माने तो संग्राम-भूमि में हठ कर के युद्ध कीजिये ॥६॥ ।