पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५१

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रामचरितमानस । ६७६ यहाँ प्रायः लेग शङ्का करते हैं कि अंगद ने भूठ क्यों कहा ? उत्तर-रावण ने जैसी व्यंगोति से निन्दा की, उसी के अनुकूल गूढोत्तर वालिकुमार ने दिया । यदि झूठ कहने का अभिप्राय होता तो आगे चल कर 'सत्य पवन सुतमोहि सुनाई आदि काहे को कहते। सत्य कहहि दसकंठ सन्न, माहि न सुनि कछु कोह । कोड न हमारे कटक अस, तो सन लरत जो साह । हे दशानन ! तू सब सच कहता है, यह सुन कर मुझे कुछ भी कोध नहीं है। ऐसा कोई हमारे कटक में नहीं है जो तुम से लड़ने में शोमा पाये। प्रत्यक्ष में रावण की प्रशंसा करने पर भी उसे तुच्छ बनाने का भाव झलकना 'व्याज. निन्दा अलंकार' है। वह नीचे के दोहा में स्पष्ट कथन किया है। प्रीति बिरोध समान सन, करिय नीति असि आहि । जौँ मृगपत्ति बध मेडुझन्हि, अल कि कहइ कोउ ताहि ॥ ऐसी नीति है कि प्रीति और विरोध परापरवाले ले करना चाहिए । यदि सिंह मेढकों को मारने लगे तो ध्या उसे कोई अच्छा कहेगा? (कदापि नदी)। जपि लघुता राम्म कहूँ, ताहि बधे बड़ दोष । तदपि कठिन दसकंठ सुनु, छत्रिजाति कर रोप ।। यद्यपि तुझे मारने में रामचन्द्रजी को लघुता और बड़ा दोष है । हे राषण ! सुन, तो भी क्षत्रिय जाति का क्रोध कठिन है। अंगदजी क्षत्रिय जाति का रोप कारण रूप कधन कर के 'मरण कार्य सूचित करते हैं। कारण के बहाने कार्य का कथन अर्थात् लोध पाने पर लघुता की परवाह न कर तुझे अवश्य मारेंगे, कारण निवन्धना प्रस्तुत प्रशंसा अलंकार है । बक-उत्ति धनु बचन-सर, हृदय दहेउ रिपु कोस । प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ, काढ़त मट दससीस ॥ टेढ़ी उक्ति वक्रोकि) रूपी धनुष पर वचन रूपी वाणां का सन्धान कर अङ्गद ने शत्र, के हृदय को जला दिया । प्रत्युत्तर रूपी सँडसियों से मानों वीर रावण निकाल रहा है । हँसि बोलेउ दसमौलि तब, कपि कर बड़ गुन एक। जो प्रतिपालइ तासु हित, करइ उपाय अनेक ॥२३॥ तप रावण हँस कर बोला-बन्दरों में एक बड़ा गुण होता है, उन्हें जो पालता है उसकी भलाई के लिए वे बहुत सा उपाय करते हैं ॥२३॥ चौ०-धन्य कीस जो निज-प्रभु-काजा। जहँ तह नाचइ परिहरि लाजा॥ नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति-हित करइ धरम निपुनाई ॥१॥ बन्दर धन्य हैं, जो अपने स्वामी के कार्य के लिए लज्जा छोड़ कर जहाँ वहाँ नाचते ।