पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५४

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६७ . पष्ट सोपान, लडाकाण्ड । । जानहि दिग्गज उर कठिनाई । जब जन मिरेउँ जाइ बरिआई ॥ जिन्ह के दसन करालन फूटे । उर लागत मूलक इव टूटे ॥३॥ मेरे हृदय की कठिनता को दिशा के हाथी जानते हैं, जब जब मैं जोरावारी से जाकर भिड़ गया, तब तब उनके भीपण फूटे (निकले हुए) दाँत मेरी छाती से लगते ही मूली की तरह टूट गये ॥३॥ जासु चलत डोलत इमि धरली । चढ़त अत्त-गज जिमि लघु तरनी ॥ सोइ रावन जग बिदित प्रतापी । सुनेहि न सबन अलोक प्रलापी ॥४॥ जिसके चलती बेर धरती ऐसी डगमग होती है जैसे मतवाले हाथी के बढ़ने पर छोटी नौका काँपती है। मैं वही जगत्प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूँ, अरे मिथ्या धकनेवाला ! तू ने कान से नहीं सुना ? ॥२॥ अपने पराक्रम का गर्व परोकप की असहनशीलता-अस्या और कुटुम्म सेना आदि की अधिकता का मद सञ्चारीभाष है। दो०-तेहि रावन कह लघु कहलि, नर कर करसि बखान । रेकपिबश ख खल, अब जाना तब ज्ञान ॥२॥ उस रावण को छोटा कहता है और मनुष्य की बड़ाई करता है ? शारे वकवादी, तुच्छ चन्दर मैंने तेरे ज्ञान को अब जान लिया (चुप रह) ॥२५॥ चौ०-सुनि अङ्गद लकोप कह बानी । बोलु सँभारि अधम असिमानी॥ सहसबाहु-सुज-गहन अपारा । दहन अनल-सम जासु कुठारा ॥१॥ यह सुन कर क्रोधित हो अंगद वचन बोले- नीच असिमानी ! सँभाल कर बोल। सहस्रबाहु की भुजाएँ सपी दुर्भध अपार धन को जलाने में जिनका कुल्हाड़ा अग्नि के समान है ॥१॥ जासु परसु सागर-स्वर-धारा । बूड़े कृप अगनित बहु धारा ॥ तासु गर्ष जेहि देखत भागा । सा नर क्यों इससीस अागा ॥२॥ जिनके कुठार रूपी समुद्र के तीन बाढ़ में अनेक बार असंख्यों राजा डूब गये उन (परशुराम) का गर्व जिन (रामचन्द्रजी) को देखते ही भाग गया, क्यों रे भागा रावण ! वे मनुष्य कैसे हैं ? जब तक 'धारा' शब्द में श्लेष न माने और उसके दो अर्थ (तेज धार तथा पानी का बहाव ) न लें, तब तप का चमत्कार न मालेगा सीधे परशुराम का नाम न ले कर ' अस्त्र और गुणों द्वारा उनका परिचय कराना 'प्रथम पायाक्तिभलंकार' है। राम मनुज कंस रे सठ बङ्गा । धन्वी-काम नदी पुनि गङ्गा । पसु-सुरधेनु कल्पतरु-रूखा। अन्नदान अरु अन्नदान अरु रस-पीयूखा ॥३॥ क्यों रे दुष्ट मसखरे ! रामचन्द्र जी मनुष्य हैं ? कामदेव धनुर्धर और फिर गंगा नदी हैं ? कामधेनु पशुहै ? कल्पवृत पेड़ है? अन्न दान है और अमृत रस है ? ||