पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९६७

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रामचरित-मानस । संहार किया। सारा नगर जला कर भस्म कर दिया, तब तुम्हारे पल का गर्व कहाँ था? (उसे क्यों नहीं जीत लिया)॥३॥ दूत की बड़ाई से मालिक (रामचन्द्रजी) की बड़ाई प्रकट होना 'च्याजस्तुति अलंकार' है। अब पति सुषा गाल जनि मारहु ! मार कहा कछु हृदय विचारहु ॥ पति रघुपतिहिनृपति जनि सानहु । अग-जग-नाथ अतुल-बल-जानहु॥४॥ हे स्वामी ! अन भूठमूठ गप मत हाँफिये, कुछ मेरा कहना भी हृदय में विधारिये । हे नाथ ! रघुनाथजी को राजा मत मानिये, उन्हे घराचर के स्वामी (अखिलेश्वर) और अतोल बलवान समझिये ॥ रामचन्द्रजी का सत्य राजत्व गुण निशेध कर के उसका धर्म अगजग नाथ में स्थापन करना 'पर्यस्तापहुति अलंकार है। बान प्रताप जान मारीचा । तासु कहा नहिं मानेह नीचा । जनक-समा अगनित महिपाला : रहे तुम्हहु बल विपुल बिसाला ॥५॥ बाण का प्रताप मारीच जानता था, पर उसका कहना आपने नोचता से नहीं माना। राजा जनक के दरबार में असंख्यों राजा इकट्ठे थे, बहुत बड़े चली तुम भी वहाँ थे ॥५॥ अखि धनुष जानकी बिआही। तब सडाम जितेहु किन ताही ॥ सुरपति-सुस जानइ बल थोरा । राखा जियत आँखि गहि फोरा ॥६॥ धनुष तोड़ कर उन्होंने जानकी को विवाह लिया, तब उनको युद्ध में क्यों नहीं जीता ? इन्द्र के पुत्र (जयन्त) ने भी अल्प बली समझा (गुस्ताखी कर के पीछे पैरों पड़ा तब उसे) जीवित रख पकड़ कर एक आँख फोड़छी ॥६॥ सूपनखा कै गति तुम्ह देखी । तदपि हृदय नहि लाज बिसेखी ॥७॥ शूर्पणखा का दशा तुमने आँखों देखी, ते। भी तुम्हारे हृदय में अधिक लज्जा नहीं आई ॥७॥ दो व्यधि बिराध-खर-दूषनहि , लीला-हतेउ-कबन्ध । बालि एक सर मारेऊ, तेहि जानहु दलकन्ध ॥३६॥ जिन्होंने विराध, स्वर और दूषण का संहार कर खेल ही में कवन्ध को मार डाला, हे दशानन ! एक बाण से वाली का वध किया उनको (ईश्वर) समझो ॥३६॥ रामचन्द्र ईश्वर हैं, यह सीधे शब्दों में न कह कर क्रियाओं के वर्णन से घुमा कर कहना 'प्रथम पर्यायाक्ति अलंकार' है। यहाँ मन्दोदरी के समझौते की बातें भयानक रस पति-निन्दा. स्वरूप-भावाभास के अङ्ग से कही गई हैं, ऐसे वर्णन को कविजन रसवत अलंकार कहते हैं । चौ०-जेहि जलनाथ बँधायउ हेला । उतरे सेन समेत सुबेला ॥ कारुनीक दिनकर-कूल-केतू । दूत पठायउ तव हित हेतू ॥१॥ जिन्होंने खेल ही में समुद्र बँधवा दिया और सेना सहित सुवेल-पर्वत पर उतरे हैं। दशाशील सूर्यकुल के पताका (रामचन्द्रजी) ने तुम्हारे कल्याण के लिये दूत भेजा ॥१॥ .