पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९७१

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रामचरित मानस । आये कीस काल के प्रेरे। छुधावन्त सब्ब निसिचर मेरे ॥ अस कहि अहहास सठ कीन्हा । गृह बैठे अहार बिधि दोन्हा ॥२॥ बन्दर काल के भेजे हुए आये हैं और मेरे सब राक्षस भूने हैं। ऐसा कह कर वह दुष्ट खिलखिला कर हँसा कि घर बैठे ब्रह्मा ने भोजन दिया है ॥२॥ रावण के हदय में अनुचित उत्कण्ठा का होना मावाभास है। सुमट सकल चारिहु दिसि जाहू । धरि धरि भालु कोस सब खाहू ॥ उमा रावहिं अस अभिमाना । जिसि टिहिम-खग सूत उताना ॥३॥ सब योद्धा चारों दिशा में जाश्रो और सम्पूर्ण वानर भालुओं को पकड़ पकड़ कर. खाओ। शिवजी कहते हैं-हे उमा ! रावण को ऐसा अभिमान है जैसे टिटिहरी पक्षी उतान हो कर सोता है । टिटिहरी पक्षी उतान हो कर सोता है, उसके मन में भय लगा रहत है कि कहीं श्रीकाश नटूट पड़े । यदि वह टूटेगा तो मैं पावों पर थाम लूँगा। चले निसाचर आयसु माँगी। गहि कर भिडिपाल बर साँगी ॥ तोमर मुदगर परिच प्रचंडा । सूल कृपान परसु गिरि-खंडा ॥४॥ राक्षस प्राज्ञा माँग कर चले, वे सब उत्तम गोफन, (देलवाँस) साँगी, (हाथ से चलाने का बड़ा त्रिशूल). गडासा, मुद्गर, लोहदण्ड, भीषण त्रिशुल, तलवार, कुल्हाड़ी और पत्थर के ढोके हाथों में ले कर ॥४॥ जिमि अरुनोपल निकर निहारी । धांवहिं सठ खग मांस-अहारी ॥ चाँष-अङ्ग-दुख तिन्हहिं न सूझा । तिमि धाये मनुजाद अबूझा ॥५॥ जैसे लाल पत्थर की राशि को देख कर मूर्ख मांस-भक्षी पक्षी दौड़ते हैं उन्हें अपने चोंच टूटने का दुःख नहीं सूझ पड़ता वैसे ही बुद्धि हीन राक्षस (पानर भालुओं को खाने की इच्छा • से दौड़े ॥५॥ मुंह पिटाने जाते हैं, यह व्यंगार्थ वाच्यार्थ के साथ ही प्रकट होने से तुल्मप्रधान गुणीभूत व्यंग है। दो०-नानायुध सर चाप घर, जातुधान-बल बीर । कोट कँगूरन्हि चढ़ि गये, कोटि कोटि रनधीर ॥gon नाना प्रकार के हथियार धनुष-बाण धारण कर के झुण्ड के झुण्ड बलवान शूर रणधोर राक्षस किले के कंगूरों पर चढ़ गये ॥४०॥ चौ० कोट काँगूरन्हि सोहहि कैसे। मेरु के सृङ्गन्हि जनु धन बैसे ॥ बाजहिँ ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥१॥ वे राक्षस कोट के कँगूरों पर कैसे शोमित हो रहे हैं, मानो सुमेरु-पर्वत के शृंगों पर बादल बैठे हों । ढोल और नगाड़े युद्ध के बाजे बजते हैं, जिनके शब्द सुन कर वीरों के मन में उत्साह उत्पन्न हो रहा है ॥५॥