पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । ९७ बाजहिँ भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिँ दरारा ॥ देखि न जाइ कपिन्ह के ठहा। अति-बिसाल-तनु भालु सुभहा ॥२॥ नगाड़े और शहनाई बाजे असंख्यों बन रहे हैं, जिन्हें सुन कर कादरों की छाती फटी जाती है । एन्दरों और भालू योद्धाओं के समूह देखे नहीं जाते, (सभी रुद्रमूर्चि किये) अत्यन्त विशाल शरीरवाले हैं ॥२॥ धावहिं गनहिन अवघट घाटा । पर्वत फोरि करहिं गहि बाटा । कटकटाहिँ कोटिन्ह मट गर्जहि । दसन आँठ काटाहि अति तर्जहि ॥३॥ धावा करने में दुर्गम चढ़ाव उतार का पहाड़ी रास्ता नहीं गिनते हैं पर्वत को हाथ से पकड़ चूर कर के डगर बनाते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं, दाँतों से ओठ चाते हुए अत्यन्त उपटते ( उछलते ) हैं ॥ ३ ॥ उत रावन इत राम दोहाई । जयति जयति जय परी लराई ॥ निसिचर सिखर समूह, ढहावहिँ । कूदि धरहिँ कपि फेरि चलावहि ॥१॥ उधर रावण का जब जयकार, इधर रामचन्द्रजी की जय जयकार विजय-घोषणा करते हुए संग्राम छिड़ गया। राक्षस चट्टानों के समूह गिराते हैं, पन्दर कूद कर पकड़ लेते और नौटा कर उसे भारते हैं ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । धरि कुधर-खंड प्रचंड मर्कट, भालु भालु गढ़ पर डारहीं। झपटहि चरन गहि पटकि महि अजि, चलत बहुरि प्रचारही । अति-तरल तरुन-प्रताप तर्जहिँ, तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गये। कपि भालु चढ़ि मन्दिरन्हि जहँ तह, राम-जस गावत भये ॥१॥ अत्यन्त कोधित हुए वन्दर और भालू पर्वत के टुकड़ों को लेकर किले पर फेंकते हैं। झपट्टे से (झोंके से उछल कर राक्षसों के) पाँव पकड़ कर धरती पर पटक देते हैं, फिर घे भाग चलते तब ललकारते हैं। बड़े फुरतीले नवजवान तेजस्वी वन्दर क्रोध से उछल उछल कर किले पर चढ़ गये। जहाँ वहाँ मन्दिरों पर चढ़ कर वानर भालू रामचन्द्रजो का सुयश गान करने लगे ॥१॥ दो-एक एक गहि निखिचर, पुनि कपि चले पराइ । ऊपर आप हेठ भट, गिरहिं धरनि पर आइ neu फिर एकएक राक्षसों को पकड़ कर बन्दर भाग चले । नीचे राक्षसमट और ऊपर आप होकर धरती पर आ गिरते हैं ॥११॥