पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९८१

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९०६ रामचरित मानस । दौड़ते हो । सो को देख कर वन्दर जहाँ तहाँ गिरने लगे, उस समय सामने नहीं हो सके (हिम्मत छूट गई ॥३॥ जहँ तह लागि चले कपि रीछा । शिसरी राबहि जुद्ध कै ईछा । सो कपि भालु न रन महँ देखा । कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेखा ॥४॥ पानर-भालू जहाँ तहाँ भाग चले, सभी को युद्ध की लालसा भूल गई । ऐसा एक भी बन्दर या रीछ संग्राम में नहीं देख पड़ता जिसे मेघनाद ने प्राणायशेष (शक्तिहीन-वधुआ) न कर दिया हो ॥३॥ देश-दस दस सर सब मारेसि, परे भूमि कपि बीर । सिंहनाद करि गर्जा, मेघनाद बल धीर ॥५०॥ दस दस वाण सघको मारा जिससे वानर पीर धरती पर गिर पड़े। बली धैर्यवान मेघनाद सिंह की तरह भीषण ध्वनि से गर्जा ॥५०॥ चौ०-देखि पवन-सुत कटक बेहाला । क्रोधवन्त जनु धायउ काला ॥ महा-खेल एक तुरस उपारा । अति रिस मेघनाद पर डारा ॥१॥ अपनी सेना को खराब हालत में देख पवनकुमार क्रुद्ध होकर दौड़े, घे ऐसे मालूम होते हैं मानों काल हो। तुरन्त एक बहुत बड़ा पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े क्रोध से मेघ- नाद के ऊपर फेंका ॥१॥ आवत देखि गयउ नभ साई । रथ सारथी तुरग सब खाई ॥ बार बार प्रचार हनुमाना। निकट न आव मरम से जाना ॥२॥ पर्वत को प्राता देख कर वह माझाश चला गया और रथ, सारथी, घोड़े सर नष्ट हो गये । चार बार हनुमानजी ललकारते हैं, पर समीप नहीं आता, वह भेद जानता है ॥२॥ एक ही घूसे की चोट से अशोकवाटिका में देर तक मूर्छित पड़ा रहा, वह चोट मेघनाद को भूली नहीं । दोबारा पश्चिम द्वार के युद्ध में बेहोश हुश्रा था, उन घटनाओं को समझ कर डरता है। इसी ले समीप में नहीं आता है। रघुपति निकट गयउ घननादा । नाना भाँति कहेसि दुर्वादा । अल सख्य आयुध सच डारे । कौतुकही प्रत्रु काटि निवारे ॥३॥ मेघनाद रघुनाथजी के पास गया और अनेक तरह के दुर्वचन कहे। अखा और शस्त्र सभी हथियार चलाये, प्रभु रामचन्द्रजी ने खेलही में उन्हें कार गिराये ॥३॥ देखि प्रताप मूढ़ खिसियाना । करइ लाग माया बिधि नाना । जिमि कोउ करइ गरुड़ से खेला । डरपावइ गहि स्वल्प सपेला ॥४॥ यह प्रताप देख कर मूख खिसिया गया और नाना प्रकार की माया करने लगा। जैसे कोई गरुड़ के साथ खेल करे कि छोटा सा साँप का बच्चा लेकर उन्हें डरावे ॥४॥ ।