पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९८२

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पष्ठ सोपाल, लङ्काकाण्ड । दो-जासु प्रधल-माया-बस, लिव-बिरचि बड़ छोट। ताहि दिखावइ निखिचर, निज-माया-मति खोट ॥१॥ जिनकी प्रबल माया के वश में शिव-ब्रह्मा बड़े से ले कर छोटे सभी जीव है अथवा बड़े शिव ब्रहा भी छोटे हैं । उनको सोटी बुद्धिवाला राक्षस अपनी माया दिखाता है ! ॥१॥ चौ०-नमचढ़ि बरषद बिपुल अंगारा । महि ते प्रगट होहिं जलधारा। नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनिबालहिँ नाची ॥१॥ आकाश में चढ़ कर बहुत से अंगारे बरसाता है, इधर पृथ्वी से पानी की धारा प्रकट हो रही है। अनेक प्रकार के पिशाच और पिशाचिनियाँ नाच नाच कर मारों फाटो शब्द थोलती हैं ॥१॥ विष्ठा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरपह कबहुँ उपल बहु छाड़ा। घरपि धरि कीन्हेसि अँधियारा । सूफान आपन हाथ पसारा ॥२॥ विष्ठा, पीच, लोह, बाल, हड्डी, पत्थर और कभी बहुत सी रोख बरसाता है। धूल की वर्षा कर के.ऐसा अन्धकार कर दिया कि अपना हाथ फैलाने से नहीं सूझ पड़ता है । ॥२॥ कपि अकुलाने माया देखे । सब कर सरन बना एहि लेखे । कौतुक देखि राम भुसुकाने । मये सभीत सकल. कपि जाने ॥३॥ इस माया को देख कर पदर घबरा गये, उन्हों ने समझा कि इस हिसाब से सय की मृत्यु भा गई। यह कुतूहल देख कर रामचन्द्रजी मुसकुराये और जान गये कि सम्पूर्ण वन्दर भयभीत हुए हैं ॥३॥ एक बान काटी सन लाया । जिम्बि दिनकर हर तिमिर-निकाया । कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके । भये प्रबल रन रहहिं न रोके ॥४॥ एक ही बाण से सब माया काट दी, जैसे लमूह अंधकार को सूर्य हर लेते हैं। कृपादृष्टि से बन्दर भालुओं को देखा, जिससे वे ऐसे भयल हुए कि रण में रोके नहीं रुकते हैं men 'रन रहहिँ न रोके' इस वाक्य से यह ध्वनि व्यक्षित होती है कि पराक्रमी मेघनाद के सामने जाने से मना किये जाने पर भी वे रुके नहीं। तब उनकी सहायता के लिए "लक्ष्मणजी उठे। दो०-आयसु माँगि राम पहि, अङ्गदादि कपि साथ । लछिमन चले क्रुद्ध हेइ, बान-सरासन हाथ ॥५२॥ रामचन्द्रजी से आशा माँग कर लक्ष्मणजी अंगद आदि धानरों के साथ हाथ में धनुप. बाग लिए क्रोधित होकर चले ॥५२॥ क्रोध के भावेश में लक्ष्मणजी स्वामी को प्रणाम करना भूल गये।