पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९८३

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९०० रामचरित-सानस। चौ०-छतज-लयन-उर-बाहु-णिसालााहिम-गिरि-निभ-तनु-कछु एकलाला: इहाँ दसानन सुभट पठाये । नाना अस्व सस गहि धाये ॥१॥ उनकी आँखें रक्त के समान लाल, छाती चौड़ी और भुजाएँ लम्बी है, शरीर हिमालय पर्वत की तरह (श्वेत) कुछ ललाई लिये है । यहाँ रावण ने येाधाओं को भेजा, वे अनेक प्रकार के श्ररून शस्त्र ले कर दौड़े ॥१॥ भूधर-नख-बिटपोयुध-धारी । धाये कपि जय राम पुकारी। भिरे सकल जोरिहि सन जारी । इत उत जय-इच्छा नहिँ थोरी ॥२ पहाड़, नन और वृक्ष रूपी हथियारों को लिये रामचन्द्रजी की जय पुकारते हुए बन्दर दौड़े। लब जोड़ी ले जोड़ी भिड़ गये, दोन ओर विजय की थोड़ी अभिलाषा नहीं है ॥२॥ मुठिकन्ह लातन्ह दाँतन्ह काटहि । कपि-जयसील मारि पुनि डाटहि । मारु मार धरू धरु धरु मारू । सोस तारि गहि भुजा उपारू ॥३॥ विजयी बन्दर धूंसों और लातों से मारते तथा दातों से काटते, फिर डाटते हैं। मारो, मारो धरी, धरो, धरा, मारो, लिर तोड़ कर बाँह उनाड़ लो ॥३॥ असि र पूरि रही नव-खंडा। धावहिं जहँ तह संड प्रचंडा । देखहिँ कौतुक ना खुर-इन्दा । कबहुँक बिस्मय कबहुँ अनन्दा ॥en ऐसी आवाज़ नौ खण्ड पृथ्वी में छा रही है, जहाँ तहाँ विना सिर की धड़े प्रचण्ड वेगले दौड़ रही हैं। देवता-वृन्द आकाश से तमाशा देखते हैं, उन्हें कभी खेद और कभी आनन्द होता है ॥४॥ दो०-धिर गाड़ भरि अरि जमेउ, ऊपर धूरि उड़ाइ ॥ जनु अँगार-दासीन्ह-पर, मृतक धूम रह छाइ ॥५३॥ गड़हों में रक्क भर भर कर जम गया है, उसके ऊपर धूल का उड़ना ऐसा मालुम होता है, मानो सुरदों के अङ्गारों की ढेरी (चिता) पर धुआँ छा रहा हो ॥५३॥ सभा की प्रति में 'जिमि' पाठ है। चौ०-घायल बीर बिराजहिँ कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे ॥ लछिमन मेघनाद दोउ जोधा। भिरहि परस्पर करि अति क्रोधा ॥१॥ घायल हुए योद्धा कैसे शोभित हो रहे हैं जैसे फूले हुए पलाश वृक्ष सोहते हैं। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों वीर अत्यन्त क्रोध करके परस्पर भिड़ रहे हैं ॥१॥ छोउल का वृक्ष पतझड़ हो जाने पर वसन्त ऋतु में फूलता है, इसके पुष्प लाल रंग के अगस्त के आकारवाले होते हैं और उनकी ढेपुनी (जड़) काली होती है । फूलने पर यह अपनी विलक्षण शोभा पसार कर वन को सुशोभित करता है।