पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९९६

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पष्ठ सोपान, लढाकारोड । मुझे लात से मारा। उसी ग्लानि से मैं रघुनाथजी के पास आया और दुखी देख कर प्रभु रामचन्द्रजी के मन में अच्छा लगा ( उन्होंने द्या वश मुझे अपना लिया) ॥३॥ सुनु सुत भयउ काल बस रोवन । सो किसान अब परम सिखावना धन्य धन्य तें धन्य बिभीषन । अयेहु तात निखिचर-कुल-भूषन ॥४॥ कुम्भकर्ण ने कहा-हे पुत्र ! सुनो, रावण काल के श्राधीन हुआ है, क्या अब वह अच्छी सलाह मान सकता है ? (कदापि नही) 1 हे तात विभीषण ! दू धन्य है, धन्य है, धन्य है। तू राक्षसवंश का भूपण हुआ है mell बन्धु बंस ते कोन्ह उजागर । मजेहु राम साभा-सुख-सागर ॥५॥ हे भाई! तू ने कुल को प्रसिद्ध कर दिया, जो शोमा और सुख के सागर रामचन्द्रजी का भजन करते हो दो०-बचन करम मन कपट तजि, अजेहु राम रनधीर । जाहु न निज पर सूझ माहि, भयउँ कालबस बोर ॥६॥ वचन, कम और मन से कपट छोड़ पर रणधीर रामचन्द्रजी की सेवा करना । हे वीर ! अब जागे, मुझे अपना पराया नहीं सूझता है, क्योंकि मैं भी काल के वश हो गया हूँ ॥४॥ चौ-बन्धु बचन सुनि फिरा बिभीषन । आयउ जहँ लोक-विभूषन । नाथ भूधराकार-सरीरा । कुम्भकरन आवल रनधीरा ॥१॥ भाई की बात सुन कर विभीषण लौटे और जहाँ तो लोगों के भूषण रोमवन्द्र जी थे यहाँ आये। उन्होंने कहा-हे नाथ ! पर्वत की प्रकृति का शरीरवाला रणधीर कुम्भकर्ण भाता है॥१॥ एतना कपिन्ह सुना जन्म झाला । किलकिलाइ धाये बलवाना ॥ लिये उपारि बिटप अरु भूधर । कटकटाइ डारहिँ ता अपर ॥२॥ जव बन्दरों ने इतना कान से सुना, तब वे बलवान किलकिला कर (खूब ज़ोर से) दौड़े। वृक्ष और पर्वत उखाद लिये, फटका कर उस पर फेकते हैं ॥२॥ कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा । कहिँ भालु कपि एकहि बारा । मुरेउ न मन तनु टरेड न हारे । जिमिगज अर्क-फलन्हि के मारे ॥३॥ कोटि कोटि पर्वत के शिखर मालु और बन्दर एक साथ ही उस पर फेंक कर मारते हैं। परन उसका मनही मुड़ा और न घरोर हटाये हटा, जैसे मदार के फल से मारे आने पर 'हाथी को चोट नहीं लगती ॥३॥ तष मारुत सुत मुठिका हने । परेड धरनि ब्याकुल सिर धुनेऊ ॥ पुनि उठि तेहि मारेउ हनुमन्ता । घुर्मित भूतल परेउ तुरन्ता ॥४॥ तब पवनकुमारने बँसा मारा वह व्याकुक हो कर धरती पर गिर पड़ा और सिर पीटने