पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१२४

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| लगे सँवारन सकल सुर वाहन विविध विमान ।। - होहिं सगुल मंगल सुभग हिँ अपछा' शाला. १॥ सुरु सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन ( सवारी ) और विमान सँवारने लगे, शुभ और सुख देने वाले शकुन होने लगे और अप्सरायें गाने लगीं। सिवहिं संभु गन करहिं सिंगारा ॐ जटा मुकुट अहि मौरु संवारा न हुँ कुडल कंकन पहिरे व्याला ॐ तन विभूति पट केहरि छाला । शिवजी के गण शिवजी का शृङ्गार करने लगे। जटाओं का मुकुट बना | कर उस पर साँपों की मौर सजाया गया शिवजी ने साँपों के कुण्डल और कंकन । रास) पहने । शरीर पर विभूति लगाई और वस्त्र के स्थान पर वाघम्वर लपेट लिया । उनी । ससि ललाट सुन्दर सिर गंगा ॐ नयन तीनि उपवीत भुजंगा गरल कंठ उर नर सिर माला असिव वेष सिव धाम कृपाला | शिवजी के सुन्दर माथे पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँप के का जनेऊ, कण्ठ में विष और छाती पर मुण्डों की माला । शिवजी का बेप ॐ अशुभ होने पर भी वे कल्याण के घर और कृपालु हैं। ॐ कर त्रिसूल अरु कुँवरू बिराजा ॐ चले वसह पढ़ि वाजहिं बाजा । राम) देखि सिवहिं सुरत्रिय मुसुकाहीं ६ वर लायक दुलहिनि जग नाहीं तो एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू शोभायमान हुआ । वे वैल पर रामो चढ़कर चले । बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवताओं की स्त्रियाँ मुस्कुराती हैं ( और कहती हैं ) कि इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं है। राम बिष्नु विरंचि आदि सुर व्राता ॐ चढ़ि चढ़ि वाहन चले राता। । सुर समाज सब भाँति अनूपा ॐ नहिं रात दूलह अनुरूप विष्णु और ब्रह्मा आदि सब देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों पर * चढ़कर बरात में चले । देवताओं का समाज सव प्रकार से अनुपम था; पर बरात । | दूलह के योग्य न थी। यो । बिष्नु कहा अस विहँसि तब वोलि सकल दिसिराज।

  • बिलग बिलग होइ चलहु सव निज निज सहित समाज | १. अप्सरा । २. जनेऊ।