पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१६७

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| म झम-एम)-राम -राम -राम -राम -राम-राम-राम)-*-राम- रीमा ॐ माया विवस भये मुनि मूढ़ा ॐ समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा' के राम गवने तुरत तहाँ रिषिराई ॐ जहाँ स्वयंवर भूमि बनाई एम । भगवान् की माया के वश हुये मुनि ऐसे मूढ़ हो गये कि वे भगवान् की राम अगूढ़ ( स्पष्ट ) वाणी को भी न समझ सके । नारदजी तत्काल वहाँ गये, जहाँ राम्रो । स्वयंवर की भूमि वनाई गई थी। ए निज निज आसन वैठे राजा ॐ बहु वनाव करि सहित समाजा। * मुनि मन हरप रूप अति मोरे * मोहि तजि आनहि वरिहि न भोरें | खूब सज-धज कर राजा लोग समाज-सहित अपने-अपने असिन पर बैठे थे। नारद मुनि के मन में बड़ा हर्ष था कि मेरा रूप बहुत ही सुन्दर है। कन्या ॐ भूलकर भी मेरे सिवा दूसरे को न बरेगी। म मुनि हित कारन कृपानिधाना ॐ दीन्ह कुरूप न जाइ वखाना ॐ सो चरित्र लखि काहुँ न पावा ॐ नारद जानि सबहिं सिर नावा राम मुनि के कल्याण के लिये कृपानिधान ने उनको ऐसा कुरूप बना दिया हूँ था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता; पर उस रहस्य को किसी ने देखा नहीं। सबने रामा उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया । हैं रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। के * विप्र बेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ” ॥१३॥ वहाँ दो शिवजी के गण भी थे । वे सब रहस्य जानते थे। वे ब्राह्मण के वेष ॐ में वहाँ का सब कौतुक देखते फिरते थे। वे भी बड़े मौजी थे। एम) जेहि समाज वैठे मुनि जाई ॐ हृदय रूप अहमिति अधिकाई । तहँ बैठे महेस गन दोऊ ॐ विप्र वेष गति लखइ न कोऊ जिस समाज ( पंक्ति ) में नारदजी हृदय में अपने रूप का बड़ा घमण्ड । लेकर जा वैठे थे, वहीं पर शिवजी के वे दोनों गण भी बैठ गये। ब्राह्मण के वेष राम में होने से कोई उनकी चाल को न जान सका। करहिं कूट नारदहिं सुनाई की नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई रीझिहि राजकुमॅरि छवि देखी ॐ इन्हहिं वरिहि हरि जानि बिसेषी नारदजी को सुना-सुनाकर, वे व्यंग्य वचन कहते थे-भगवान् ने इनको म १. स्पष्ट । २. भेद, रहस्य । ३. वे भी। ..*