पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२१८

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| हे अविनाशी ! सब के हृदय में बसने वाले ( अन्तर्यामी ), सर्वव्यापक, परम आनन्द-स्वरूप, अजेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र-चरित्र, माया से रहित, * मुकुन्द ( मोक्षदाता ) ! आपकी जय हो। संसार से विरक्त, अति अनुरागी, मोह से रहित, मुनिवृन्द भी जिनको रात-दिन ध्यान करते हैं, और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानन्द की जय हो। राम) जेहि सृाछु उपाई त्रिविध बनाई संग सहाय न दूजा ।। ॐ सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिय अगति न पूजा। । जो भवभय भंजन मुनि मन रंजल इंजन विपति बथा। राम मल बच क्रम बानी छाँड़ि सयाली सरद सकल सुर जूथा । । जिन्होंने अकेले, बिना किसी दूसरे की सहायता के, तीन प्रकार की सृष्टि । उत्पन्न की, पापों के शन्नु भगवान् हमारी सुधि लें । हम न भक्ति जानते हैं और न पूजा । जो संसार के भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनन्द देने वाले, और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं, हम सब देवताओं के समूह मन, वचन और कर्म से, चतुराई करने की वान छोड़कर उनकी शरण | सारद छ ति सेषा रिचय असेष जाहुँकोउ नहिं जाना। हुँ जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे छूवउ ो लीभगवाना।। से भव बारिधि मंदर' सब विधिसुन्दर शुत संदिर सुख पुञ्जा। | मुनि सिङ सकल सुर म अयातुलसत नाथ पद जा।। सरस्वती, वेद, शेष और सम्पूर्ण ऋषि, कोई भी जिनको नहीं जानते, हैं। राम) जिन्हें दीन प्रिय हैं। ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही श्री भगवान् हम पर ना ॐ दया करें । हे संसाररूपी समुद्र में ( मन्दराचल ) पर्वत के समान, सब प्रकार से सुन्दर, गुणों के घर, सुखों की राशि, नाथ ! आपके कमल ऐसे चरणों में मुनि, सिद्ध और सब देवता भय से वहुत विकल होकर नमस्कार करते हैं। एम् - जानि समय सुर भूमि सुलि वचन समेत सनेह ।। - गगन गिर गंभीर अह हरनि सोक संदेह ॥१८६॥ १. पापों के शत्रु । २. समस्त । ३. पहाड़ ।।