पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३३६

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  • ३३३ के साथ और भी हैं। एक श्याम और दूसरा गौर वर्ण की है। उनके भी सब अंग यस) बहुत सुन्दर हैं । यह वे सब लोग कहते हैं, जो उन्हें देख आये हैं। ॐ कहा एक मैं. आजु निहारे ॐ जलु विरंचि निज हाथ सँवारे हैं भरतु राम ही की अनुहारी ॐ सहसा लखि नै सकहिं नर नारी

एक ने कहा- मैंने आज ही उन्हें देखा है, इतने सुन्दर हैं मानों ब्रह्मा ने ए उन्हें अपने ही हार्यों से सँवारा है। भरत तो राम ही की शकल-सूरत के हैं। राम स्त्री-पुरुष उन्हें यकायक पहचान नहीं सकते । । लषनु सत्रुसूदनु एक रूपा ॐ नख सिख तें सव अङ्ग अनूपा । मन भावहिं मुख वनि न जाहीं ® उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं | लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों एक रूप हैं। दोनों के सब अंग नख से लेकर शिखा तक अनुपम हैं। मन को प्यारे लगते हैं, पर मुख से वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के लिये तीनों लोकों में कोई नहीं है। म छंद-उपमा न कोउ कह दासतुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं। एमी बल विनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एई अहैं॥ |पुर नारि सक्कल पसारि अंचल विधिहिं बचन सुनावहीं। ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहि पुर हम सुमङ्गल गावहीं॥ एमा तुलसीदास कहते हैं कि कवि और कोविद कहते हैं कि इनकी उपमा का । ( पुरुष ) कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र एमा इनके समान ये ही हैं । जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर ब्रह्मा को यह वचन सुनाती हैं कि इन चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में करना, जिससे हमें सुन्दर मंगल गायें। है कहहिं परसपर लारि बारि विलोचन पुलक तल। 653 सखि सबब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ।३११। एमा स्त्रियाँ आँखों में आँसू (प्रेमाश्रु) भरकर पुलकित शरीर से आपस में कहती हैं ए हैं कि हे सखी ! दोनों राजा पुण्य के समुद्र हैं, शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे। राम्रो * एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं ® आनँद उमगि उसगि उर भरहीं हैं। के जे नृप सीय स्वयंवर आए ॐ देखि बंधु सव तिन्ह सुख पाये ।