पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३६९

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राम)-4-राम -राम -राम -सम -राम -राम -राम -राम-राम)-*-सम) ॐ ३६६ चेटिना : हैं छंद-करि विनय सियरामहिं समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहे हैं। एम् बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहँ बिदित गति सब की अहे तुम म) परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रान प्रिय सिय जानिबी' । हैं तुलसी सुसील स्नेह लखि निज किङ्करी करि मानिबी हैं। | विनती करके उन्होंने सीता को रामचन्द्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा–हे तात ! हे सुजान ! बलि जाती हैं, तुमको सब की * गति मालूम है। कुटुम्बियों, नगर-निवासियों, मुझको और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय हैं ऐसा जानना । तुलसीदास कहते हैं। इसके शील और स्नेह को देखकर इसे अपनी करके मानना ।। तो तुम्ह परिपूरन काम जान' सिरोमनि भाव प्रिय।। sccccc जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ३३६ है तुम पूर्णकाम हो, ज्ञानियों के शिरोमणि हो और भाव-प्रिय हो ( तुमको प्रेम प्यारा है ) हे राम ! तुम भक्तों के गुणों को ग्रहण करने वाले, दोष को नाश करने वाले और दया के घर हो। अस कहि रही चरन गहि रानी के प्रेम पङ्क जनु गिरा समानी । सुनि सनेह सानी बर बानी के बहु विधि राम, सासु सनमानी म) ऐसा कहकर रानी पाँव पकड़कर चुप रह गई। मानो उनकी वाणी प्रेमॐ रूपी दलदल में समा गई हो। स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर रामचन्द्रजी कैं एम) ने सास का बहुत तरह से सम्मान किया। राम विदा माँगत कर जोरी ॐ कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी । एम पाइ असीस बहुरि सिरु नाई 8 भाइन्ह सहित चले रघुराई । रामचन्द्रजी ने हाथ जोड़कर विदा माँगते हुये बार-बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पाकर फिर मस्तक नवाया और भाइयों-सहित रघुनाथजी चले । मञ्जु मधुर मूरति उर आनी ॐ भई सनेह सिथिल सब रानी ॐ पुनि धीरज धरि कुरि हँकारीं ॐ वार बार भेंटहिं महंतारीं । रामचन्द्रजी की सुन्दर मधुर मूर्ति को हृदय में लाकर सब रानियाँ स्नेह सम्म १. जानना । २. मानना । ३. ज्ञानी ।