पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१३८

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सफल क्रान्तिकी तैयारी कीजिये १२५ 1 इन गुलाम देशोका एक जबर्दस्त शस्त्र है। किन्तु हमारी विशेषता यह है कि जहां हम अपनी स्वतन्त्रताके लिए प्रयत्नशील है वहाँ हमारी पूरी सहानुभूति उन सब अधीन देशोके साथ है जो हमारी तरह साम्राज्यवादके चगुलसे छुटकारा पाना चाहते है । हमारी यह भी घोषणा है कि हम स्वतन्त्र होकर किसी देशकी स्वतन्त्रताका अपहरण नही करेगे। इस प्रकार हमने अपने पड़ोसी राष्ट्रोको अभयदान किया है और उनका सौहार्द प्राप्त किया है। साथ ही साथ हम संसारके अन्य देशोसे पृथक् भी नहीं रहना चाहते । हम स्वतन्त्र राष्ट्रोके कुटुम्बमे सम्मिलित होकर अपने कर्तव्योको पूरा करना चाहते है और विश्वशान्ति- की स्थापनामे सहायक होना चाहते है । स्वतन्त्र भारत शान्तिका एक जवर्दस्त समर्थक होगा और संस्कृतियोके आदान-प्रदानमे उसका उचित मान होगा। हमको न उपनिवेशोकी आवश्यकता है और न किसी दूसरे राष्ट्रके आर्थिक-जीवनपर प्रभुत्व पानेकी । हम आत्मतुष्ट है, क्योकि हमारा जन-बल और धन-बल पर्याप्त है। हमारा पुरातन इतिहास भी हमको यही शिक्षा देता है। जहाँ इस प्रस्तावमे उदार राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयताका उल्लेख है वहाँ अपने देशकी जनताके हितोकी उपेक्षा भी नही की गयी है और स्वराज्यके स्वरूपका किंचिन्मान दिग्दर्शन भी कराया गया है। हम चाहते है कि राष्ट्रकी शक्ति जनताके हाथमे प्रावे अर्थात् किसान और मजदूर जो राष्ट्रको सम्पत्तिका उत्पादन करते है, राज्यशक्तिका संचालन और उपयोग करे । हमारा स्वराज्य मध्यम वर्गका स्वराज्य नही होगा, किन्तु वास्तवमे किसान-मजदूर-राज होगा। यह तो हमारा सन्' ४२ का निश्चय है । इसीको कार्यान्वित करनेके लिए अगस्त- क्रान्ति हुई थी। किन्तु इस प्रस्तावके सब पहलू क्रान्तिमे भाग लेनेवालेके सामने न थे। क्रान्तिकी कोई तैयारी भी न थी। क्रान्तिके लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करना ही क्रान्तिके लिए पर्याप्त नहीं होता। इसके लिए उपयुक्त सगठनकी आवश्यकता होती है। क्रान्तिका प्रारम्भ और स्वरसेन होना बहुत अच्छा है । जनताकी लाभकी दृष्टि से यही श्रेयस्कर है, किन्तु क्रान्तिके पीछे व्यापक दृष्टि रखनेवाले और क्रान्तिके विज्ञानके समझने वाले कर्णधार चाहिये और चाहिये सगठन जो उनके आदेशोके अनुसार जनताकी उन्मुक्त शक्तियोका समुचित उपयोग कर सके । ऐसी क्रान्तिके अवसरपर जनताका नैतिक बल वहुत बढ गया है और लाखो आदमी मानवताके सद्गुणोंका अपनेमे अनुभव करते है । क्रान्तिके कार्यको यही बात सुगम बनाती है और सफल क्रान्तिकी रक्षा करनेमे भी यही समर्थ होती है। क्रान्तिकी सफलताके लिए सेनाका विद्रोह करना , कमसे कम उसका तटस्थ रहना, आवश्यक होता है । सन् ४२ मे सेनाका सहयोग हम भारतमे पा सके, यद्यपि देशके वाहर आजाद-हिन्द-फौजके सगठनने भारतीय सेनाके एक अशमे विद्रोहकी अग्नि प्रज्वलित कर दी थी। यदि कही यह सुयोग देशके भीतर प्राप्त होता और राष्ट्रके दो अग- नागरिक और सैनिक–अलग-अलग काम न कर एक सूत्रमे आवद्ध होते तो क्रान्तिकी 1