काग्रेस किधर १३३ कांग्रेस किधर यह कहा जाता है कि कांग्रेस दुर्वल और क्षीण होती जाती है, काग्नेसमे आपसकी दलवन्दी और फुट बढ़ती जाती है, अनुशासनकी कमी होती जाती है तथा काग्रेस कार्यकर्ता माधारणत. अपने आदर्शोसे च्युत होते जाते है । काग्रेसको इस नये खतरेसे बचानेके लिए कई सुझाव पेश किये गये है। कोई कहता है कि काग्रेसके भीतर अनेक विचारधारायोको स्थान देनेसे यह गडबड़ी उत्पन्न हो गयी है, इसलिए यदि काग्रेसके भीतर पार्टियोंको स्थान न दिया जाय तो यह बुराई दूर हो सकती है । इस सिलसिलेमे यह कहा जाता है कि अब समय आ गया है कि काग्रेसको पार्टीका स्वरूप देना चाहिये । अव वह स्वतन्त्रता अजित करनेके लिए विविध वर्गोका संयुक्त मोर्चा मात्र नही रह गया है। उनका कहना है कि जबतक विविध दलोके लिए उसमे स्थान रहेगा तबतक अनुशासनका ठीक-ठीक पालन नही हो सकेगा । इन मित्रोका कहना है कि वर्तमान अवस्थामें सव काग्रेसजनोकी समान रूपसे कांग्रेसके प्रति वफादारी नही है तथा प्रत्येक दलका सदस्य सर्वोपरि अपने दलमें प्रतिपन्न होता है । काग्रेसमे चुनावके अवसरपर जो अत्याचार होता है उसके रोकनेका यह उपाय निर्धारित किया जाता है कि काग्रेसके साधारण सदस्योको मत देनेका अधिकार न होना चाहिये । निर्वाचन क्षेत्र केवल कांग्रेस कार्यकर्तायोंका होना चाहिये जिनके लिए कुछ शर्तोका पालन करना अनिवार्य होना चाहिये । काग्रेसकी ओरसे काग्रेस-विधानमे सशोधन करनेके लिए जो उपसमिति नियुक्त की गयी थी उसकी यही सिफारिशे है । हमारा निवेदन है कि जवतक रोगका निदान ठीक-ठीक नही होगा तबतक रोगका इलाज भी न होगा। ऊपर जिन उपायोका निर्देश किया गया है वह इतने प्रभावशाली नही है कि उनके प्रयोगसे रोगके आरामकी आशा की जा सके । चुनावके समयकी बुराइयोको रोकनेके लिए चुनावकी प्रथाको ही अप्रजातात्रिक बना देना एक दोषका निरसन करना और एक दूसरे घातक दोषको निमन्त्रण देना है। जीवनके अन्य विभागोमे ग्राम- पंचायतसे लेकर व्यवस्थापिका सभातक साधारण चुनावको कायम रखना और केवल काग्रेसके चुनावके लिए जनतंत्रके सिद्धान्तको ढीला करना उचित नही प्रतीत होता । हाँ! यह ठीक है कि काग्रेसके सगठनकी तुलना इन सस्थानोसे पूर्ण रूपसे नही की जा सकती। कांग्रेसके पदाधिकारियोके लिए विशेप योग्यताका नियम रखना आवश्यक है, किन्तु चुनावका तरीका इस प्रकार वदल देना कि जनतत्रके सिद्धान्तका परित्याग करना पड़े उचित नही है । पुनः कांग्रेस वालिग मताधिकार देनेके पक्षमे है। इस आधारपर जो चुनाव होगे उनमे अनाचारकी आशंका सदा बनी रहेगी। इस अनाचारको रोकनेके लिए उचित उपायोका विधान करना आवश्यक है, किन्तु इसके लिए वालिग मताधिकारका ही परित्याग करना उचित नही होगा । लोकतन्त्र-पद्धतिके अनाचार किसी -न-किसी अंश या रूपमे सर्वन पाये जाते है, किन्तु इसके लिए कोई इस पद्धतिके परित्यागकी सिफारिश नहीं करता। विशेषकर जब हम लोकतंत्र शासनकी स्थापना करना चाहते १. 'समाज' ३० जनवरी, १९४७ ई०
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