पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१४७

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१३४ राष्ट्रीयता और समाजवाद है तो यह उचित प्रतीत होता है कि जो संस्था इस सिद्धान्तको समाजमे प्रतिष्ठित करना चाहती है उसे स्वयं अपना सचालन इसी पद्धतिके अनुसार करना चाहिये । पुन. यह कहा जाता है कि विविध विचारधाराग्रोपर ग्राश्रित अनेक दलोके समावेशसे काग्रेसकी अवस्था बिगड़ रही है और उसका अनुशासन शिथिल पड रहा है तथा अव जब स्वतन्त्रता प्राप्त-सी हो गयी है तव काग्रेसको संयुक्त मोर्चा बनाये रखनेका कोई अर्थ नही है । इन सज्जनोका कहना है कि काग्रेसके उद्देश्यकी पूत्ति हो जानेसे काग्रेसके सम्मुख स्वतन्त्रताको रक्षा करनेका ही प्रश्न रह जाता है किन्तु यह मित्र भूल जाते है कि काग्रेसकी बीमारीका यह कारण नहीं है । ये काग्रेसजन जो अपनेको काग्रेसके अनन्य भक्त कहते है और एक नेता एक पताकाका नारा लगाते है, आपसमे ही लड़ा करते हैं । वह अपनी महत्त्वाकांक्षाको पूरा करनेके लिए व्यक्तिगत दलोकी सृष्टि करते है और इतनी बुरी तरह लडते है कि लज्जासे सिर झुका लेना पडता है । उदाहरण देनेकी अावश्यकता नही है, क्योकि यह बात किसीसे छिपी नहीं है । अत यदि विविध दल काग्रेसमे बाहर कर दिये जायें तब भी रोगसे छुटकारा नहीं मिलेगा। नवीन व्यक्तिगत दलोकी सृष्टि होगी और आज भी इनकी कमी नहीं है। इस सम्बन्धमे एकमात्र काग्रेसनिष्ठकी जो बात कही गयी है उसका अर्थ स्पष्ट नहीं है । मनुप्यकी मूलनिष्ठा जीवनके अाधारकी और सामाजिक मूल्योमे होती है। इसीसे प्रेरित होकर वह विविध संस्थानोमे सम्मिलित होता है और उनका परित्याग करता रहता है। एक समय एक व्यक्ति एक सस्थाका सदस्य हो सकता है और उसकी निष्ठा समान रूपसे दोनोमे हो सकती है । ऐसे अवसर पा सकते है जब इन दो निष्ठायोमे परस्पर विरोध उत्पन्न हो, किन्तु यदि उस व्यक्तिके लिए दोनोकी आवश्यकता है तब वह इस विरोधका परिहार कर लेगा। अन्ततोगत्वा इसका निर्णय उस व्यक्तिके मूल्य और आदर्श ही करेगे कि उसको किस संस्थामे रहना है। कोई संस्था अपने सदस्योसे इतना ही चाह सकती है कि वे उसके निर्णयोंका पालन करे । इससे अधिक चाहना तथा उनके आत्मविश्वास और सिद्धान्तोको सीमित करनेकी चेप्टा करना सर्वथा अनुचित होगा। इस सम्बन्धमे हम यह भी कहना चाहते है कि यदि सयुक्त मोर्चेका काम समाप्त हो गया है और काग्रेस अपने लक्ष्यको प्राप्त कर चुकी है, अथवा जून १९४८ मे प्राप्त कर लेगी तो उस समय कांग्रेसके अस्तित्वकी ही क्या आवश्यकता है। विभन्न विचार रखनेवाले तथा स्वतन्त्र भारतके लिए विभिन्न कार्यक्रमको प्रस्तुत करनेवाले सभीने काग्रेसकी सेवा की है और सबके उद्योग और प्रयत्नका ही यह फल है कि देश स्वतन्त्र होने जा रहा है । ऐसी अवस्थामे स्वतन्त्र हो जानेपर काग्रेस सस्थाको जीवित रखना, युद्धसे सव दलोको पृथक् कर देना तथा एक विचारके लोगोको उसपर एकाधिकार कायम करने देना कहांतक उचित है ? काग्रेस किसीकी भी दास नही है। यह समस्त राष्ट्रको सम्पत्ति है । इसके निर्माणमे सवका हाथ रहा है। अतः यह कहना अमुक-अमुक निकल जावे और 'हम' अकेले इसका सचालन करे सर्वथा अन्याय है। फिर यह हम' है कौन ? इसका निर्णय कौन करेगा? हमको यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि महात्माजीका यह विचार है