१५४ राष्ट्रीयता और समाजवाद कांग्रेसमें अान्दोलनका अर्थ अभीतक सिर्फ प्रचार करना रहा है। प्रचार तो 'स्वतन्त्रता' 'स्वराज्य' ऐसी गोल-मटोल बातोको लेकर किया जा सकता है, मगर जब प्रचारसे काम नहीं चलता और वास्तवमे आन्दोलन ( agitation ) करनेकी जरूरत पड़ती है तो ऐसी स्पष्ट वातोसे काम नहीं चलता; खासकर जब उसमे जनताको भी शामिल करनेकी वात हो । ऐसे आन्दोलनके लिए जिसमें जनताको पूरा-पूरा गामिल करना है, कुछ साफ- साफ ठोस वातोंकी जरूरत होती है, जिनका जनताकी रोजाना जिन्दगीसे गहरा सम्बन्ध हो यानी जनताको आर्थिक माँगोको वुलन्द करनेकी जरूरत पड़ती है । यही एक तरीका राजनीतिक स्वतन्त्रताकी लड़ाईको आगे बढ़ाने, उसमे और भी ताकत लानेका है। जनसाधारणको सगठित कर उनमे लड़नेकी ताकत पैदा करनेका और कोई उपाय नही है । फिर तो यह साफ है कि यह काम विना सामाजवादी नेतृत्वके पूरा नही हो सकता था । इन्हीं कारणोसे समाजवादी पार्टी पैदा हुई और इन्ही उद्देश्योंको हासिल करनेकी वह कोशिश करती रही है। आर्थिक मांगोकी बुनियादपर अान्दोलन करनेसे, आर्थिक लड़ाई लड़नेसे, देशकी ताकत बढती है । इसीसे कांग्रेसकी भी ताकत बढ़ी है। इसका मिसाल तो पिछले असेम्बलियोका चुनाव ही था। अधिकांश काग्रेसजनोको यह विश्वास नही था कि इस पिछले चुनावमे कांग्रेसकी इतनी जबर्दस्त जीत होगी, क्योकि वह आर्थिक माँगोके विना चलाये गये आन्दोलनकी ताकत नही जानते थे। इस चुनावने उनकी आँखें खोली । मजबूत संगठन बनाइये अव इतना तो जरूर हो गया है कि लोग अपनेको समाजवादी कहनेसे घवराते नही । अब तो सभी लोग आज यह साबित करनेकी कोशिश करते हैं कि एक नये प्रकारका समाजवाद वह भी चाहते है । महात्मागाधी भी अपनेको समाजवादी कहते है । ऐसी हालतमें एक समाजवादीकी पहचान वातोसे नहीं हो सकती। उसकी काररवाईको देखना होगा । हम भी प्रचारसे आगे बढ़कर संगठनके कार्यमें जुट जायेंगे तो खरे और खोटे समाजवादीकी परख करना आसान हो जायगा। इसलिए हमे संगठनके कार्यपर सबसे ज्यादा ध्यान देना है । इसके लिए अपना एक पन्न होना चाहिये और अपने विचारोंका प्रतिपादन करनेके लिए पुस्तक-पुस्तकाएँ तैयार करनी चाहिये । हमारे संगठनकी कमजोरी उसके शिथिल होनेके कारण हमें बड़ी मुश्किल हो रही है । यह जो काग्रेसके अन्दर नरमदल-और गरमदलवालोका झगड़ा उठ खड़ा हुआ है इसका दारोमदार मेरे ख्यालमे हमारी संगठनकी शिथिलतापर है। किसान-सभाओं और काग्रेसके सम्बन्धको ही लीजिये । यह ठीक है कि कांग्रेसके कुछ नेता काग्रेसके कार्यकर्ताओं- को किसान-सभायोमें काम करनेसे रोकते है, किसान-सभापोका पनपना उन्हें बुरा लगता है, मगर मेरा विश्वास है कि इच्छा होते हुए लोग ऐसा नहीं कर पाते अगर किसान- सभाओंके ऊपर अनुभवी अग्रगामी कांग्रेसजनोकी अच्छी देख-रेख होती। किसान-सभाओं- का दायरा इतना बढ़ गया है और देखरेख करनेवाले इतने कम या असंगठित हैं कि
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