पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१६९

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१५६ राष्ट्रीयता और समाजवाद अनिवार्य है । एक तो अभी खत्म हुअा, मगर अभी और पानेवाले है। इनका मुकावला करनेके लिए राष्ट्रीय आन्दोलनके क्रान्तिकारी नेतृत्वकी आवश्यकता है। हमें लोगोंको यह समझाना है कि साम्राज्यशाहीको मजबूर करनेकी ताकत हममे तभी पायेगी जव हम जनताको आर्थिक लड़ाईको राजनीतिक लड़ाईके साथ घुलमिल जाने दें। उदाहरणके लिए किसानो और मजदूरोके प्रदर्शनकी विधि हमे काममें लानी है । उन्हें अपनी मांगोंके लिए सगठित रूपसे आन्दोलन करना सिखाना है । काग्रेसके चार पाना मेम्बरोसे हमारा सच्चा सम्पर्क इसी तरह हो सकता है । अाजकी हालत तो यह है कि ऐसे प्रदर्शनोपर नाराजगीका इजहार किया जाता है । कहा जाता है कि इनकी जरूरत क्या है । इस विचारधारा, इस मनोवृत्तिको हमे दूर करना है । ऐसे प्रदर्शनोमे यहाँतक कि किसान-सभायोके कायम करनेमें काग्रेसके बड़े- बड़े नरमदलके नेता भी पुराने जमानेमे शामिल हो चुके है । खुद सरदार वल्लभभाई पटेल हमारी प्रान्तीय किसान संघकी बैठककी सदारत कर चुके है । मगर आज चूंकि किसान-सभाएँ क्रान्तिकारी रूप अख्तियार कर रही है, इन्हे खतरनाक बताया जाता है । इससे यह पता चलता है कि इसमे कोई सिद्धान्तकी बात नहीं है । मगर हमे अपना काम इस तरह करना चाहिये जिसमे हमें इन्हें कांग्रेसके साधारण सदस्योंकी निगाहमें बदनाम करनेका कोई बहाना न मिले । लाल झण्डा ले चलना ठीक है, मगर उसे राष्ट्रीय प्रदर्शनोमे राष्ट्रीय झण्डेसे ऊँची जगह देना एक गलत बात है । ऐसी कितनी ही बाते है जिनको ध्यानमे रखकर अगर हम काम करें तो कांग्रेस और राष्ट्रीय ग्रान्दोलनको क्रान्तिके पथपर वढाते हुए हम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता और समाजवादकी बीचकी मंजिलें तेजीसे तय करते जायेंगे । यह ठीक है कि समाजवादी होनेकी हैसियतसे हमें इसकी तैयारी करनी है कि स्वराज्यकी लड़ाई जैसे ही खतम हो या उसके खतम होते-होते सामाजिक स्वतन्त्रताकी लड़ाई शुरू हो जाय, मगर यह भी ठीक है कि अगर स्वराज्यको लड़ाईमे हम जल्दसे जल्द कामयाबी हासिल नहीं करते तो सामाजिक स्वतन्त्रताकी लड़ाईकी नौवत ही नही पायेगी। संयुक्त मोर्चा और भारतीय कम्युनिस्ट विविध विचार रखनेवाले व्यक्तियो या समुदायोमे किसी सामान्य शत्रुके विरुद्ध या किसी विशेष उद्देश्यकी पूर्तिके लिए जो सयुक्त कार्य किया जाता है वही प्रधान रूपसे संयुक्त मोर्चा है । यूरोपमे फैसिज्म और युद्धका विरोध करनेवाली कई सस्थाएं रही है, पर इन संस्थानोके उद्देश्य और उनकी कार्यप्रणाली समान न थी। आपसमें कई प्रश्नोको लेकर इनमे काफी मतभेद और विरोध था। बाजी संस्थाएँ तो एक दूसरेकी ही परम शत्रु थी। किन्तु इनमेसे जिन संस्थानोने यह अनुभव किया कि तत्काल अपने मौलिक मतभेदोको भुलाकर मिलजुलकर सामान्य शत्रुका सामना करना चाहिये, उन्होने इस