पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१८२

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युद्ध और जनता १६६ साम्राज्यवादी युद्ध घटनाचक्रसे राष्ट्रीय युद्ध हो सकता है और राष्ट्रीय युद्ध साम्राज्यवादी हो सकता है। किन्तु इस युद्धका स्वरूप अभी नही वदला है । युद्धमे कुछ राष्ट्रीय तत्व आ गये है, किन्तु वह गौण है । प्रधान तत्त्व आज भी साम्राज्यवादी है। दूसरी ओर युद्धक्षेत्रका विस्तार होनेसे, अर्थात् जापान और अमेरिका, इन दो साम्राज्यवादी राष्ट्रोके आ जानेसे युद्धमे नये साम्राज्यवादी तत्त्व आ गये है । अव यह युद्ध विश्वव्यापी हो गया है। इसका सूत्र चीन और रूसके हाथमे नही है। चीन इंगलैण्ड और अमेरिकाकी सहायतापर आश्रित है और रूसपर लडाई लादी गयी है । वह इस युद्धके उद्देश्योको वदलनेके लिए अपनी खुशीसे नही शरीक हुआ है । चर्चिल और रूजवेल्टं भी 'दुश्मनका दुश्मन दोस्त होता है' इस आधारपर रूसके साथ है। मुसीवतमे अजीब-अजीव लोगोका साथ हो जाता है । तो क्या हम यह कह सकते है कि यह सव शरीफजादे है ? युद्धके सूत्र इंगलैण्ड और अमेरिकाके हाथमे है, जो साम्राज्यवादी है । भविष्यकी सबसे जवर्दस्त साम्राज्यवादी शक्ति अमेरिकाकी होगी। उसकी इस युद्धमें प्रधानता है। राष्ट्रीय तत्त्व गौण है और युद्धके निर्णयोमे उनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है । इसलिए मेरा कहना है कि युद्ध प्रधानतया अब भी साम्राज्यवादी है। चीन और रूसके साथ हमारी हार्दिक सहानुभूति है । इस कारण नीतिमे थोड़ा परिवर्तन करना पड़ता है। पर यदि युद्धका स्वरूप प्रधान अंशमे नही बदला है तो नीतिमे कोई मौलिक परिवर्तन नही किया जा सकता। यदि इंगलैण्ड और अमेरिका अपनी युद्ध और शान्तिकी नीतिको वदलें और अपनी साम्राज्यवादी मनोवृत्तिका परित्याग कर आज अपने साम्राज्यवादी हितोंका परित्याग करे तो यह युद्ध अवश्य जनताका फैसिस्ट विरोधी युद्ध हो जायगा, पर ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिये । हम साम्राज्यवादके युगमे रह रहे है । राष्ट्रोको जब अपनी नीतिमे शान्तिमय उपायो तथा कूटनीतिसे सफलता नही मिलती तव वह सैन्यवलका प्रयोगकर अपने उद्देश्योको प्राप्त करना चाहते है । तृप्त राष्ट्र अपने साम्राज्यकी रक्षा करना चाहते है और अतृप्त राष्ट्र ससारका फिरसे वटवारा करनेके लिए तृप्त राष्ट्रोको विवश करना चाहते है । वर्तमान युद्धका यही हेतु है । दूसरोकी स्वतन्त्रता छीनकर और उनका आर्थिक शोपण कर तृप्त राष्ट्रोके साम्राज्यको स्थापना हुई है। यों तो पूंजीवादी सत्ता सर्वग्रासी होती है और किसी प्रकार उसकी भूख शान्त नही होती, ; किन्तु जब एक पुराना पूँजीवादी राष्ट्र एक विशाल साम्राज्यकी स्थापना कर लेता है, कतिपय देशोके आर्थिक जीवनपर प्रभुत्व कायम कर लेता है और जगह-जगह अपना प्रभाव-क्षेत्र वना लेता है तब किसी जवर्दस्त प्रतिद्वन्द्वीका मुकाबला होनेपर वह' शान्तिका पाठ पढने लगता है । यह तो वही मसल है कि हजार चूहे खाकर विल्ली हजको चली। लीग ऑव् नेशन्सकी स्थापना इसीलिए हुई थी कि इगलैण्ड और फ्रास अपने हस्तगत मालको हजम कर सके और पदाक्रान्त राष्ट्र उनके विरुद्ध सिर न उठा सके । पूर्वीय यूरोपमे फ्रासने अपनेको मजबूत करनेके लिए क्षुद्र राष्ट्रोका समूह बनाया। इस समूहमे ऐसे राष्ट्र भी शामिल थे जिनका शासन स्वेच्छाचारी फौजी अधिनायकोके हाथमे था।