पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२०९

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१६६ राष्ट्रीयता और समाजवाद इन नी वर्पोमे प्राप्त अनुभवके अाधारंपर और हमारे भारतवर्षमें और उसके बाहर महायुद्धके फलस्वरूप जो व्यापक परिवर्तन हुए हैं उन्हे दृष्टिमे रखते हुए हमें अपनी नीति फिरसे निर्धारित करनी है। पूंजीवाद अपने अान्तरिक विरोधोका निराकरण नहीं कर सकता है और फलतः उसे स्थायी बनाने के सभी प्रयत्लोकी विफलता अवश्यम्भावी है। बृहत् चतुष्टय ( The Big Four ) को शान्तिकी समस्याका समाधान नहीं प्राप्त हो सका है। एक दूसरे विश्वव्यापी सघर्षकी तैयारियां प्रारम्भ हो चुकी है और राष्ट्रोंकी नये प्रकारकी दलवन्दी हो चुकी है । यद्यपि अभी प्रत्येक देश थका हुया है, उसे कुछ समयके लिए विश्राम और पुनरुज्जीवनकी बडी ग्रावश्यकता है और हर जगह लोग रोटीके लिए ग्रौर शान्तिके लिए चिल्ला रहे है, तथापि राज्योके गूत्रधार और नेता फिर अपने पुराने जघन्य व्यापारमे लग गये है पूंजीवादके आन्तरिक विरोध ऐमे है कि विभिन्न गक्तियोके पारस्परिक संघर्ष और वैमनस्य स्पष्ट होकर ही रहेगे चाहे इसमे अपेक्षाकृत जल्दी हो या देर । समाजके आधार वुरी तरह हिल चुके है और शासकवर्ग नही जानते कि इन परिवर्तित दशाग्रोमे शासनकार्य कैसे चलावे। उससे नवीन दशाके साथ अपना सामञ्जस्य बैठाते ही नहीं बनता और उसमें यह क्षमता किवा दूरदर्शिता है ही नहीं कि वह नयी विपत्तियोपर समाजवा निर्माण कर सके । आये दिन स्पष्ट होता जा रहा है कि जब तक सम्पत्ति-सम्बन्धी वर्तमान सम्बन्ध आमूल परिवर्तित नही किये जाते तव तक ससारमें स्थायी शान्ति नही स्थापित हो सकती। नवीन युगका सूत्रपात हो रहा है और ऐसा प्रतीत होता है कि समाजवादके चरितार्थ होनेकी घडी अाही गयी है तथापि कुछ दुनिवार प्रत्यय हमारे मागंमें अब भी विद्यमान है जिनका अतिक्रमण आवश्यक है इसके पहले कि संसार लक्ष्यतक पहुँच सके । जहाँतक सिद्धान्तो और आदर्शोका सम्बन्ध है हमलोगोको इस विचारसे लोहा लेना है कि समाजवाद और गणतन्त्र एक साथ नही रह सकते । बहुतसे लोग तो यहांतक कह गये है कि सोशलिज्म दासतामूलक समाजका मार्ग प्रशस्त करता है । एक अग्रेज अर्थशास्त्रीका मत है कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता ऐसे ही समाजमे अक्षुण्ण रह सकती है जहाँ आर्थिक स्थिति राज्य अधिकारके जालसे मुक्त रहती है । ये महाशय व्यक्तिके स्वतन्त्र प्रयासके समर्थक है और चूंकि सोशतिज्मका सिद्धान्त है कि उत्पादन और वितरण व्यवस्थामूलक हो उनका कहना है कि ऐसे कार्यक्रममे आवश्यक स्वतन्त्रताकी रक्षा नही हो सकती । सोवियत रूसमे समाजवादकी जो मिट्टी पलीद की गयी है और फलतः वहाँ राजनीतिक स्वतन्त्रताका जो प्रभाव हो गया है इस कारण भी यह विश्वास अभिसिञ्चित हो गया है कि व्यवस्थामूलक सुनिश्चित आर्थिक कार्यक्रम अवश्यमेव दलगत प्रभुत्व ( Totali tarianism ) और नौकरशाहीकी स्थिति पैदा कर देगा। यह दुर्भाग्यकी बात है कि रूसकी स्थितिको ही सोशलिज्मका नमूना मानकर यह अनुमान किया जाता है कि सोशलिज्म कैसा होगा और इसी अनुमानको आधार मानकर आलोचना की जाती है। जिन लोगोकी कम्युनिज्ममे आस्था रूसकी राजनीतिक और सामाजिक स्थितिके कारण छिन्न-भिन्न हो गयी है और जो अव व्यक्तिगत स्वातन्त्रय और