पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२१२

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समाजवादी दल १६६ "हमलोग उन कम्युनिस्टोंमें नही है जो व्यक्तिको स्वतन्त्रताका नाश करनेके लिए बद्ध परिकर है, जो विश्वको एक विशाल वैरक अथवा कारखानेमे परिणत कर देना चाहते है । कुछ ऐसे कम्युनिस्ट भी है जो नि सकोच व्यक्तिगत स्वतन्त्रताको अस्वीकार कर देते है । ऐसा करनमे उनके विवेकको कोई ठम नही लगती। ये लोग चाहते है कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रताको ससारसे वहिष्कृत कर देना चाहिये, क्योकि इसे वे पूर्ण सामजस्यके लिए व्यवधानस्वरूप समझते है। किन्तु हमलोग स्वतन्त्रताके बदले वरावरी नही चाहते । हमलोगोको विश्वास है कि किसी भी सामाजिक व्यवस्थामे वैसी पूर्व स्वतन्त्रता नही मिलेगी जैसी ऐसे समाजमे जो सामाजिक स्वामित्व ( Communal ownership ) पर आधारित हो।" कहा जा सकता है कि जव मार्क्स स्वतन्त्रता और जनतन्त्रका समर्थक था तो उसने निम्नवर्गकी तानाशाही ( dictatorship ) की चर्चा क्यो की। हमलोगोको स्मरण रखना चाहिये कि वह इस तानाशाहीकी कल्पना केवल ऐसे देशोके लिए करता था, जहाँ जनतन्त्रीय व्यवस्थाएँ और परम्पराएँ दृढतासे स्थापित नही थी और जहाँ पूंजीपतियो- का दल तुरन्त ही राज्यकी सारी सैनिक शक्तिका प्रयोग अपने प्रतिद्वन्दियोके विरुद्ध कर सकता है। फिर इस तानाशाहीकी कल्पना केवल अल्पकालके लिए की गयी थी, साथ ही यह मजदूर जनताकी गणतन्त्रीय तानाशाही होती न कि किसी दलविशेषकी । मार्क्स-दर्शनका आविर्भाव इस अभिप्रायसे नही हुआ था कि पूंजीवादके अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता किस प्रकार सुनिश्चित बन गयी है उसका निराकरण कर दिया जाय, बल्कि इस उद्देश्यसे कि जनतन्त्रकी भावना और स्वतन्त्रताको पूर्ण बना दिया जाय और उसे साधारण मानवके लिए प्राप्य बना दिया जाय । मार्क्सने १९ वी शताब्दीके आर्थिक मानवकी भर्त्सना यह कहकर की कि वह अमानुषिक एव पाशविक हो गया है, क्योकि पूंजीवादी व्यवस्थामे पडकर साधारण मानव दासताको प्राप्त हो गया है और ऐसा हो गया है कि उसे जड़ पदार्थोकी भाँति प्रयोग किया जा सकता है । जनतन्त्रकी वह भावना, जिसका सम्वन्ध पूंजीवादके उत्थानके साथ जोड़ा जाता है, अपूर्ण थी, क्योकि वह केवल राजनीतिक क्षेत्रतक ही सीमत थी। किन्तु २० वी शताब्दीके प्रारम्भसे धीरे-धीरे उसका विस्तार होता रहा है और उसके अन्तर्गत आर्थिक जनतन्त्रवाद भी आ गया है। कम्युनिस्टोके लिए यह आवश्यक था कि वे जनतन्त्रकी पूंजीवादी भावनाकी कमी और अनुपयुक्तताका दिग्दर्शन कराते; किन्तु उदार परम्पराके लिए अनादरकी भावना रखना उनकी बहुत बड़ी भूल थी। अपने प्रचारसे उन्होने जनतन्त्रीय सस्थाअोके मूलको कमजोर बना दिया। इस प्रकार कम्युनिस्टोने उदार परम्पराके नाशमे सहायता पहुँचायी, इसपर आगे चलकर फासिस्टोने भी उसी प्रकार प्रहार किया और इस प्रकार फासिज्मके सूत्रपातका मार्ग प्रशस्त कर दिया : इस बड़ी भूलका बहुत वड़ा मूल्य सोशलिज्मको चुकाना पडा । जर्मनीमे फासिज्मकी चमत्कारिक उन्नति और फासिस्ट विचारोका विश्वव्यापी प्रसार मानवताकी सभी प्रकारकी उन्नतिके लिए एक खतरा हो गया-सोशलिज्मकी तो वात ही क्या !