पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

किसानोंका उद्धार कैसे हो २०१ 'यदि हमें ठोस शक्ति प्राप्त करनी है तो विभिन्न दलोके मुखियोका भिन्न विचारवालो- पर कटु आक्रमण करना बन्द करना होगा और विरोधी सिद्धान्तोके माननेवालोपर गालियो- की बौछारके व्यापारका अन्त करना होगा।" एक बार फिर हम आपलोगोका इस महत्त्वपूर्ण सभामे योग देनेके निमित्त स्वागत करते है और आपसे प्रार्थना करते है कि हमारी कमियो और त्रुटियोपर ध्यान न दे । किसानोंका उद्धार कैसे हो ?' जमीदारी प्रथाका अन्त करके जमीनपर उसके जोतनेवालेका अधिकार स्थापित किया जाय,, यह हमारे किसान-अान्दोलनकी सबसे प्रमुख मांग रही है । इस माँगको काग्रेसने सिद्धान्तरूपमे स्वीकार कर लिया है और हमारे प्रान्तमे इस मॉगको व्यावहारिक रूप देनेके सम्बन्धमे रूपरेखा तैयार करनेके लिए एक सरकारी कमेटी भी बैठायी गयी है। खेती ही हमारे देशका मुख्य उद्योग-धन्धा है । इसमे देशके लगभग ७३ फी सदी लोग लगे हुए है । विना जमीदारी प्रथाका अन्त हुए इस उद्योग-धन्धेकी तरक्की नही हो सकती, किसान जमीनको अपनी समझकर उसकी पैदावार वढानेके लिए हर तरहका त्याग करनेके लिए तैयार नही हो सकता, भूमिपर नये साधनोका प्रयोग करनेकी प्रेरणा उसे नही मिल सकती। खेतीकी उन्नतिके लिए जमीदारी प्रथाका अन्त होना और खेती परसे दूसरे उन सभी वीचके लोगोको हटाना, जो खेती न करते हुए भी उसकी पैदावारके अंशको हड़प जाते है, बहुत आवश्यक है । जमीदार प्रथाका अन्त करनेकी किसान-आन्दोलनकी मॉगको स्वीकार करके भी प्रान्तीय सरकार इस कार्यको पूरा करनेमे बड़ी सुस्तीसे काम ले रही है । महायुद्धको समाप्ति होनेपर पश्चिमी यूरोपके अनेक देशोमे जमीदारी प्रथाका अन्त किया गया । किन्तु इन देशोमे इस कामको एक वर्षमे ही पूरा कर डाला गया । हमारे यहाँ अभी इस वातका निश्चय नही हो पाया कि जमीदारोको मुसावजा कितना दिया जाय । मुआवजेका सवाल जहाँतक समाजवादियोका सम्बन्ध है, वे सिद्धान्तत मुग्रावजा दिये जानेके विरोधी है। हमारे देशमे मुबावजा देनेका प्रश्न सिद्धान्तकी दृष्टिसे इसलिए भी नही उठता कि जमीदारी प्रथा हमारे देशकी अपनी प्रथा न होकर विदेशी शासनद्वारा अपनी सुविधा और सहायताके लिए खड़ी की गयी प्रथा है । अपने देशमे प्राचीन कालमे ऐसे लोग तो होते थे जो एक खास इलाकेकी मालगुजारी वसूल करके सरकारको दे देते थे और वदलेमे सरकारकी ओरसे उन्हे उसका एक अंश कमीशनके रूपमे मिल जाया करता था, किन्तु वे भूमिके १. द्वितीय बनारस जिला किसान-सम्मेलनके अध्यक्ष-पदसे १० अप्रैल १९४७ को जो भाषण किया था उसके प्रमुख भागका सारांश है ।