हमने काग्रेस क्यो छोड़ी २११ प्रभाव नही है । क्या हम नही जानते कि देशका बँटवारा बिना उनके पूछे हो गया था ? इसलिए हमारा समाधान यह कहकर करना कि गवर्नमेण्टके नेता पण्डित जवाहरलालजी है ठीक नहीं है। नये विधानके अनुसार काग्रेस वस्तुत एक पार्टी हो गयी है । अब काग्रेसकी मशीनका पूरा-पूरा उपयोग गवर्नमेण्टके लाभके लिए किया जायगा । जन-आन्दोलन काग्रेसके अनु- शासनके नामपर रोके जायँगे । काग्रेस एक प्रकारसे गवर्नमेण्टकी केवल प्रचारक रह जायगी। जन-आन्दोलनपर रोक थाम होनेसे जनता नये नये अनुभवोसे वचित हो जायगी। इसकी भी आशा कम है कि काग्रेसद्वारा कोई रचनात्मक कार्य भी हो सकेगा। ऐसी स्थितिमे काग्रेसका सामाजिक आधार नित्य सकुचित हो जायगा । जमीदारी प्रथाका अन्त करनेके वाद काग्रेस बडे-बडे किसानों और मध्य वर्गकी सस्था रह जायगी । केवल जमीदारी प्रथाका अन्त करनेसे जमीनकी समस्याएँ हल न होगी, गरीव किसानो और खेतिहर मजदूरो- के प्रश्न हल न होगे । यह एक नया समाधान चाहेगे । मजदूरवर्ग भी आगे बढ न सकेगा। सामाजिक सघर्पसे चैतना पैदा होती है और जव एक प्रकारसे इसका नेतृत्व काग्रेस न करेगी तो काग्रेसके विकासका क्रम वन्द हो जायगा । सत्याग्रह-सग्रामोसे ही काग्रेसका सामाजिक प्राधार विस्तृत हुआ था । प्रत्येक संग्रामके बाद काग्रेसकी शक्ति वढी है और जनताके आनेसे उसका कार्यक्रम दे देनेसे उसकी सफलताका निश्चय नहीं है । अखिल भारतीय काग्रेस कमेटीने हालमे जो कार्यक्रम स्वीकार किया है वह ऊपरसे आया है नीचेसे नही । काग्रेसका सामाजिक आधार इसका उपयुक्त साधन नही है । उपयुक्त साधनके अभावमे साध्यकी सफलता नही हो सकती । यही कारण है कि सन् ४२ के प्रस्तावपर विधानपरिषद्ने कोई ध्यान नही दिया है । जनताको पता नही है कि क्या विधान वन रहा है । यदि जनतामे उसका प्रचार किया जाता और उसकी राय ली जाती तो विधानमे कुछ परिवर्तन हो सकता था। समाजवादी पार्टीके सामने ऐसी स्थितिमें यह प्रश्न उठा कि उसको क्या करना चाहिये । देशकी सकटकी अवस्था उसे कोई निश्चय फैसला करनेसे रोक रही थी। काग्रेससे निकलना तो उसको था ही किन्तु प्रश्न था कि इसके लिए उपयुक्त समय क्या है । हमारी अनिश्चितता इसी कारण थी, किन्तु जव काग्रेस-विधानमे यह सशोधन कर दिया गया कि कानेसमे कोई पार्टी नही रह सकती तब हमारे लिए निकलनेके सिवाय कोई दूसरा मार्ग नही रहा। इसके अतिरिक्त जनतन्त्रके आधारको सुदृढ करनेके लिए भी निकलना आवश्यक हो गया । जनतन्त्रकी सफलताके लिए स्वस्थ रचनात्मक विरोधका होना जरूरी है। आज इसका नितान्त अभाव है और साम्प्रदायिक दल इस कार्यको नही कर सकते। उनकी आलोचनाका. विशेष महत्त्व और आदर नही है । भारतीय परिस्थितिमे काग्रेसका कोई दल इस कमीको पूरा कर सकता है । यह दल समाजवादी दल ही हो सकता है । जव काग्रेसमे विकासकी गुंजाइश नही रह जाती तव उन वर्गोके आधारपर जो समाज- वादका आधार बन सकते है, एक नये सगठनका निर्माण करना आवश्यक हो जाता है ।
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