पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२४९

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२३४ राष्ट्रीयता और समाजवाद छोटे है यद्यपि इनकी संख्या बहुत अधिक है। हम समझ सकते है कि ऐसे प्रान्तमे खेती अलाभकर ही रहेगी और अनाजकी अतिरिक्त उपज बहुत अधिक न होगी । उनकी समस्या टेढी है और यद्यपि यह सच है कि उन्नत वीजो, अच्छी खाद और उन्नत नस्लके चौंपायोके सहारे भूमिको उत्पादकता बढायी जा सकती है, तथापि यह तभी सम्भव है जव वे अपने साधनोका एक साथ उपयोग करे और सहकारी उद्योगकी ओर अग्रसर हो । किन्तु इसमे स्वभावत समय लगेगा । इम वीच जो कुछ भी हम कर सकते है वह यही कि वर्तमान स्थितिमे हम जितने अधिक खेतोको लाभप्रद बना सके वनाये, और जो लाभप्रद न वन सके उन्हें दूसरे प्रकारकी सहायता दे । मेरी रायमे यदि सरकार उनकी पूरी लगान माफ करनेको तैयार न हो तो भी उसे बहुत कम कर देना चाहिये । दूसरी पालोचना जो मै करना चाहता हूँ लगानकी उस रकमके बारेमे है जिसे जमीदारी निर्मूलनके उपरान्त किसानसे वसूल किया जायगा । प्रस्ताव यह है कि उनसे वही लगान वसूल की जावे जितना वह आज दे रहे है । यदि यही किया गया.तो किसानको कोई मानसिक तुष्टि न होगी और वह अपनी स्थितिमे कोई परिवर्तन महसूस नहीं करेगा। हमारा सुझाव है कि जो मालगुजारी आज जमीदार दे रहे है किसानोसे उससे अधिक रकम लगानमे न ली जाय । इस आधारपर कि हरजानेका भार काश्तकारको लेना चाहिये, उक्त प्रस्तावका औचित्य नही माना जा सकता । हम इसके विरुद्ध है, क्योकि यह एक दूसरे प्रकारका शोपण ही होगा। हमारे मतसे राज्यको यह भार वहन करना चाहिये था उसे दूसरे शोपक वर्गाके कन्धोपर डाला जाना चाहिये । हम इस विचारका भी समर्थन नहीं करते कि भूमिको कीमत लेकर किसानोके हाथ वेचा जाय, क्योकि हम नहीं चाहते कि वे यह समझे कि भूमिपर उन्होने स्वामित्वके अधिकार अजित किये है। यदि लगानका भार हल्का हो जाता है और किसी प्रकारकी गैरकानूनी रकमे वसूल नही की जाती है तथा वे बेदखलीके शिकार नही बनाये जाते तो वे पूर्ण रूपसे मन्तुष्ट हो जायँगे। रिपोर्टकी दूसरी कमी यह है कि इसने भूमिहीन श्रमिकोकी ओर बहुत ध्यान नहीं दिया है । न्यूनतम मजदूरीका कानून वनना चाहिये और उनकी आमदनीकी प्रतिके लिए ग्रामीण उद्योग-धन्धोकी स्थापना होनी चाहिये । इसके अतिरिक्त जितनी भूमि परती है उसके वीस प्रतिशतसे अधिक जोतमे लायी जानी चाहिये और खेतिहर मजदूरोको इस जमीनपर वसाना चाहिये। किन्तु सर्वोपरि, यह आवश्यक है कि गावोमे समस्त मानवीय सम्बन्धोको बदला जाय और उन्हे लोकतान्त्रिक आधारपर स्थापित किया जाय । इस ध्येयकी सिद्धिके लिए कृपिमे और उसकी उपजके विक्रयमे सहकारिताकी व्यवस्था आवश्यक है। ग्राम-पचायतोको गॉवका राजनीतिक अदालती और आर्थिक सगठन मान लेना चाहिये। गाँववाले सरलतासे सहकारिताको नही अपना लेगे और हमे समझा-बुझाकर, प्रचार और प्रोत्साहनके द्वारा इन्हे इसकी उपयोगिताका विश्वास दिलाना होगा । कृपक अनुभवसे सीखते है और यदि किसानको सहकारी प्रणालीको ष्ठताका विश्वास हो जाय, क्योकि इससे उसे अच्छी उपज और अपनी पैदावारका अच्छा