पटना अधिवेशन २३५ दाम प्राप्त होता है, तो वह तत्परतापूर्वक इसे अपना लेगा। इसके लिए सरकारी यंत्र पर्याप्त नही है । गैरसरकारी सस्थाअोके द्वारा उसके प्रयत्नोको पूरा करना होगा, क्योकि केवल ऐसी ही सस्थाएँ इस कार्य मे उत्साह और साहसकी भावना ला सकती है। ग्राम-पचायतोका अव भी जनताके मनपर प्रभाव जमा हुआ है और यदि उन्हे एक नये रूप और नये आधारपर पुनरुज्जीवित किया जाय तो वे अन्ततोगत्वा सफल सिद्ध हो सकती है । पचायतोके ही द्वारा लगान वमूली भी की जानी चाहिये । गॉवोके सम्बन्धमे इतनी अधिक उदासीनता दिखायी गयी है कि जबतक हम एक नवीन वातावरण उत्पन्न करने के लिए कोई क्रान्तिकारी कदम नही उठाते, तवतक गाँवोकी स्थितिमे कोई भी उन्नति नही होगी। गाँवोमे सामाजिक सुविधाप्रो और सास्कृतिक केन्द्रोका सर्वथा अभाव है और इसका दुःखद परिणाम यह है कि शिक्षित नवयुवकोको वहाँ ठहरनेके लिए कोई आकर्पण नही रहता और वे नगरोकी ओर चले जाते है और इस प्रकार अपनी सेवायो और नेतत्वसे गॉवको वचित कर देते है । इस परिस्थितिका उपचार होना चाहिये और देहातोकी दशामे सुधार करनेके लिए यह आवश्यक है कि इन सभी सुधारोको तुरन्त और एक साथ प्रारम्भ किया जाय । उपर्यक्त वाते अन्य प्रान्तोपर भी समानरूपसे लागू होती है । दूसरा प्रश्न जो मेरे समक्ष विचारणीय है वह है श्रमका । औद्योगिक झगडोके निवटाके लिए सरकारने जो व्यवस्था की है, उससे मजदूरोके सामूहिक रूपसे सौदा करनेके अधिकारमे अनेक वाधाएँ उपस्थित होती है । औद्योगिक झगडोको तय करनेके लिए सरकारने समझौता बोर्डो और प्रौद्योगिक पचायती अदालतोकी स्थापना की है, किन्तु उनकी व्यवस्था इतनी जटिल है तथा उनकी कार्यप्रणाली इतनी धीमी और दीर्घसूत्री है कि उससे मालिकोका ही लाभ होता है और मजदूरोकी पर्याप्त रक्षा नही हो पाती है । इतना ही नही, कारखाना-समितियोका विधान तो औद्योगिक लोकतन्त्रकी जड ही काट देता है। सरकार गैर-काग्रेसो सघटनोको उपेक्षा करती है और उसकी नीति भी पक्षपातकी है। भारतीय राष्ट्रीय मजदूर-सवको वह मजदूरोका सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करने- वाली सस्था स्वीकार करती है । युक्तप्रान्तमे तो इसे ही कारखाना-समितियोके सदस्योको मनोनीत करनेका भी अधिकार दे दिया गया है। अपनी कारखाना-समितियोके लिए कार्यकर्तामोको निर्वाचित करनेके मजदूरोके लोकतन्त्रात्मक अधिकारपर यह एक प्रहार है । फलत. अनेक खानोको कारखाना-समितियाँ अपने मजदूरोका प्रतिनिधित्व नही करती और मजदूरोका विश्वास उन्हे प्राप्त नही है । ये समितियाँ मजदूर-सघटनोसे असम्वद्ध रहकर उनके प्रभावकी उपेक्षा करती है। फलत उन्हें सघोका समर्थन तथा सहयोग प्राप्त नही हो पाता । इस कानूनका बुरा प्रभाव यह पटता है कि ये कारखाना-समितियाँ मजदूर-संघटनोके विरोधमे खडी कर दी जाती है। सरकारी नीतिसे भारतीय राष्ट्रीय मजदूर-सघको अनुचित सहारा मिल रहा है, आमतौरसे मजदूर इसके विरोधी है । इस प्रकार मजदूर-सघटनोकी मजदूरोके लिए उचित वेतनकी मांग करनेकी शक्ति बहुत कम कर दी जा रही है और उनके हड़ताल करनेका अधिकार वस्तुतः .
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