२४६ राष्ट्रीयता और समाजवाद के हकोको वापस ले सके, और नियत की गयी मजदूरी और शर्तोपर उनको कामपर वापस जानेका हुक्म दे सकें। यदि मजदूर इन्कार करे तो वे सेनामे उनकी अनिवार्य भरती कर सके और सिपाहीकी हैसियतसे उनपर फोजी कानून लागू कर सकें । जो तनख्वाह सिपाहियोको दी जाती है, उसी तनख्वाहपर उनसे कारखानोमें काम लें और यदि वे इस पर भी हडताल करे तो उनके कोर्टमार्शलकी आज्ञा दे सकें। यह तो प्रजातन्त्रका गला घोटना है। इससे मजदूरोकी हालत गुलामोसे भी बदतर हो जायगी । मालिक मजदूरके झगड़े ऐसे है जो आपसके समझौतेसे ही तय हो सकते है । इनमें राज्यका दखल देना अनुिचित होगा । जब किसीको भी उसकी इच्छाके विरुद्ध काम करनेके लिए मजबूर नही किया जा सकता, तव यह विचन बात मालूम पडती है कि सामूहिक रूपसे उसी कामको करनेके लिए मजदूर वाध्य किया जा सकता है। जिसे कोई अकेले कर सकता है उसे औरोके साथ मिलकर क्यों नहीं कर सकता ? अनिवार्य पंचायतद्वारा मिल-मालिकोके झगड़े तय कराना प्रजातन्त्रकी पद्धतिके प्रतिकूल है । कृषिसुधार-समितिके सामने वयान मेरा पहला प्रस्ताव यह है कि सरकार और कृपकों यानी जमीन जोतनेवालोंके वीच और कोई मध्यवर्गी लोग न हो । युक्त प्रदेशकी धारासभाने जो प्रस्ताव स्वीकृत किया था उसका आशय यह था कि सरकार और खेतिहरोके बीचके सवलोग उठा दिये जाये, पर जमीदारी उठा देने के प्रश्नका विचार करनेके लिए जो कमेटी सरकारने नियुक्त की थी उसने अपनी सिफारिशोका आधार इसे नहीं माना है। कमेटीने इसे वहुत बदल डाला है । मुझे स्मरण है कि सार्वत्रिक निर्वाचन होनेके पूर्व कांग्रेस-कार्यसमितिने निर्वाचन सम्बन्धी जो मन्तव्य अपनाया था उसमे यह कहा गया था कि सरकार और किसानके बीचके लोग उठा दिये जायें । उसमे 'किसान' शब्दका प्रयोग किया गया था। कार्य- समितिकी उस बैठकमे मैं उपस्थित था जिममे यह मन्तव्य स्वीकृत हुा । (असेम्बलीवाले अपने प्रस्तावमे हमलोगोने 'काश्तकार' शब्द रखा था।) मूल मसविदेमे 'जमीन जोतनेवाला' ये शब्द थे और इनका प्रयोग पण्डित जवाहरलाल नेहरूने किया था। कुछ वाद-विनादके पश्चात् यह राय हुई कि नव प्रकारके किसानोको अलग कर देना ठीक न होगा, चाहे कोई किसान खुद जमीन जोतते हो या पारिश्रमिक देकर दूसरोसे जुतवाते हों । अतः मेरा पहला प्रस्ताव यही है कि सब प्रकारके वीचके लोग उठा दिये जायें। जमीदारी उठा देनेका विचार करनेवाली कमेटीकी जो सिफारिश है उसके अनुसार तो काश्तकारोके बहुतसे शिकमी काश्तकार जमीनसे वचित हो जायेंगे। कमेटीकी रिपोर्टमे उनके अधिकार नही माने गये है और नयी सिफारिशें कानूनको गवर्नर-जनरलकी मंजूरी मिलते ही अमलमें आ जायेंगी। इस बीच फार्मोकी संख्या वढेगी और किसानोकी जमीने छिन जायेगी। किसानोके शिकमी काश्तकारोका कोई वैधानिक अधिकार नही माना गया है, इससे पूंजी-
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