पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३१३

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२६८ राष्ट्रीयता और समाजवाद मजदूरोकी तरह इन मजदूरोको पूंजीपतियोके खिलाफ लड़ाईका अनुभव नही होता। संक्षेपमें उपनिवेशोके मजदूरोंके भीतर प्रारम्भमे वह राजनीतिक चेतना और वह शक्ति नही पायी जाती जिससे वे प्रजासत्तात्मक युद्धमे सीधे नेतृत्व अपने हाथमे ले सके । मजदूरवर्गको अपनी शक्ति और महत्त्वका ज्ञान करानेका कार्य उपनिवेशोमें क्रान्तिकारी बुद्धिजीवीवर्गके सदस्योद्वारा सम्पन्न होता है । उपनिवेशोमे ही क्यो स्वतन्त्र पूंजीवादी राष्ट्रोमे भी मजदूरोकी राजनीतिक शिक्षाका कार्य गैरमजदूर श्रेणीके समाजवादी बुद्धि- जीवियोद्वारा होता है । मजदूरवर्गका नेतृत्व अगर उनपर ही छोड दिया जाय तो उनके अन्दर राजनीतिक चेतना आ ही नही सकती । वैसी हालतमे उनके भीतर केवल पूंजीपतियों- से सुधारवादी तरीकेसे लडकर सुविधाएँ प्राप्त करनेकी आर्थिक चेतना ( trade union consciousness ) ही आ सकती है । पूंजीवादी ढाँचेको कायम रखते हुए चन्द रियायतोके लिए ही मजदूरोको नही लडना है, बल्कि उन्हे पूँजीवादी व्यवस्थाके ही मूलसे लड़ना है, यह चेतना मजदूरोमे क्रान्तिकारी वुद्धिजीवीवर्गके द्वारा ही लायी जाती है। मार्क्सवाद और पूँजीवादी विज्ञान आज प्रत्येक पूंजीवादी देश असाधारण संकटकी अवस्थामे है । यह अवस्था क्षणिक और अस्थायी नही है । यह अवस्था पूंजीवादके अन्तका प्रारम्भ घोपित करती है । इस वार संकट आर्थिक दायरेतक ही सीमित नही है । आर्थिक आधारके ह्रासके साथ-साथ पूंजीवादको समग्न सामाजिक और आर्थिक पद्धति छिन्न-भिन्न होने लगती है। ह्रासके स्पष्ट चिह्न और लक्षण पूंजीवादी विचार-पद्धतिके क्षेत्रमे भी देख पडते है । निराशा, प्रतिगामी भाव, आदर्शवादका प्रचलन, रहस्यवादको पुनरुत्पत्ति, विज्ञान और वैज्ञानिक तरीकोका परित्याग और मध्ययुगके पण्डित और टीकाकारोके तरीकोका फिरसे प्रचार यह सव वाते इस वातका सबूत है कि पूँजीवादी विचार-पद्धतिके ध्वसका क्रम असाधारण रीतिसे गहरा है । यदि पूंजीवादी राष्ट्रोके आर्थिक संकटने उत्पादनको कई पीढियोंके पीछे फेक दिया है तो पूँजीवादी विज्ञानपर आये हुए सकटने विज्ञानको सैकडो वर्ष पीछे फेंक दिया है । समाजवादी रूसमे मार्क्सका वैज्ञानिक सिद्धान्त आज वृहत् जनसमुदायकी चीज हो रहा है और अन्वेपणका जो काम हो रहा है, उसके फलस्वरूप उन विशिष्ट नियमोका पता चल रहा है, जिनका आविर्भाव विभिन्न ऐतिहासिक समाजोके जीवनमें हुआ है । उधर पूंजीवादी राष्ट्रोमे पूँजीवादी पद्धतिके ह्रास और ध्वसके साथ-साथ पूंजीवादी इतिहास-विज्ञानका बुरा हाल हो रहा है । व्यवस्थाका सर्वथा अभाव और निराशाके भावका प्रावल्य पाया जाता है । इतिहासके क्षेत्रमे वैज्ञानिक रीतिसे खोजका काम करनेवालोकी संख्या घटती जाती है और प्राय ऐसे लोग मौलिक अनुसन्धानके कार्यको गेड़ते जाते है, इसलिए नही कि उनको अवकाश नहीं है, किन्तु इसलिए कि उनके लेख