३०० राष्ट्रीयता और समाजवाद थी। मानव-समाजके इतिहासके विपयमे यही धारणा थी। जव कि ऐतिहासिक विकासका कोई ख्याल न था तो अतीतके इतिहासमे कहाँसे दिलचस्पी पैदा होती ? डेजरटीज ( Deseartes ) का विचार था कि पुरानी कितावोमे दिये हुए कहानी- किस्सोको पढना वक्त खराव करना है । उस समयका वह सामान्य विचार था कि मानव-समाज सव काल और सव देशोमे एकहीसा होता है और इस प्रकार इतिहाससे कोई नयी बात नही मालूम होती। मान्टेस्क्यू ( Montesque ) जलवायुके प्रभावको स्वीकार करते थे पर इससे आगे वह भी नही गये थे। ऐतिहासिक विकासके सिद्धान्तोको कोई नही मानता था । यह समझा जाता था कि मनुष्यको प्रभावित करने तथा उसके आचार और रिवाजको वदलनेके लिए सामाजिक जीवन और मानव व-इतिहासके अध्ययन- की जरूरत नहीं है बल्कि इसके लिए मानव-प्रकृतिका अध्ययन जरूरी है जो उस समयके ख्यालके बमूजिव अपरिवर्तनशील था । हालवैख ( Holbach ) का कहना था कि मानव-यन्त्रके कार्य सदा उन्ही नियमोसे नियन्त्रित होते है जो प्रकृतिके समस्त जीवोमें निहित है । प्राकृतिक नियमका ख्याल समाजको भी लागू किया गया। उस समय लोग इसका स्वप्न देख रहे थे कि हम आचार-विज्ञानका निर्माण कर उसके अाधारपर एक आदर्श कानून-पद्धतिका निर्माण करेगे । इस दृप्टिके अनुसार यह सोचना वाजिव न था कि सामाजिक जीवनकी घटनाअोपर नजर डालना मनुप्यके वास्तविक स्वभावका ज्ञान प्राप्त करनेमे वाधा उपस्थित करता है । 'हालवैख' और 'हेल्टवेटियस' के विचारसे हमारा अज्ञान और उससे भी ज्यादा निश्चित सामाजिक समूहोके स्वार्थ मानवप्रकृतिकी सच्ची आवश्यकतामोके स्पप्ट ज्ञानको नही होने देते । इसलिए मनुप्यकी आवश्यकताअोकी जहाँतक हो सर्वमान्य बनानेका प्रयत्न होना चाहिये अर्थात् उनको असाधारण सामाजिक घटनाग्रोसे पृथक् रहना चाहिये । हालवैख प्राकृतिक प्राचार और राजनीतिके सिद्धान्त कायम करना चाहते थे। प्राकृतिक विज्ञानकी दूसरी दिशा वुद्धिपरत्व है । प्रकृतिकी शक्तियोका संचालन करनेके लिए उसके नियम जानना जरूरी है और उसके नियम केवल शुद्ध तर्ककी सहायतासे जाने जा सकते है । इसी दृष्टिको समाजमे भी लागू किया गया। सामाजिक जीवनकी मानव-प्रकृतिको जानकर ही प्रभावित किया जा सकता है । समाजका अपना इतिहास है और उसका विकास होता है । इन वातोसे इनकार करके वास्तविक ज्ञानका दरवाजा ही वन्द कर दिया गया । यही माना गया कि केवल तर्क सामाजिक जीवनकी बुराइयोको खोज सकता है और उनको हटा कर प्राकृतिक नियमोके अनुसार सामाजिक जीवनका निर्माण कर सकता है । सामाजिक जीवनका केवल एक क्षेत्र इन विचारोके अधीन नही लाया जा सका । यह अर्थशास्त्रका क्षेत्र था। इस शास्त्रको विकसित करनेकी पूंजीवादी समाजको उतनी ही आवश्यकता थी जितनी कि प्राकृतिक विज्ञानकी । उसके व्यावहारिक महत्वके कारण यही एक ऐसा समाजशास्त्र था, जो बहुत जल्द इन विचारोके प्रभावसे वरी हो सका। १७वी शताब्दीके मध्यमे ही इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्री विलवेन पेटी (Wilbain Petty ) ने आर्थिक घटनाग्रोको समझानेमे शुद्ध तर्कका आश्रय न लेकर
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