पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३४०

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क्या धार्मिक शिक्षा. .दी जानी चाहिये ३२५ विचार करना चाहिये और अध्यापकोकी अवस्थाको जहाँतक हम उन्नत कर सकें उसे उन्नत करना चाहिये । प्रश्न केवल इतना ही नही है कि अध्यापकोके साथ भी न्याय होना चाहिये, किन्तु इससे कही अधिक गम्भीर है । हमको तो अभी लोकतन्त्रको स्थापना करनी है और जनसाधारणको शिक्षित बनाना है । अनिवार्य शिक्षा ही जनतन्त्रकी आधारशिला है और इसकी सफलता योग्य शिक्षकोपर निर्भर है। अत: नये समाजकी नीव योग्य अध्यापक-वर्ग है । इस वर्गके महत्त्वको समझकर उसकी आवश्यकताअोको पूरा करना और अध्यापकके कामको आकर्पक बनाना राज्यका कर्तव्य है । कही भी इस दृष्टिसे अवतक विचार नही किया गया था, क्योकि अध्यापकोके मिलनेमे कठिनाई नही होती थी। गत युद्धके कारण ही यह समस्या उत्पन्न हो गयी है । युद्धकी आवश्यकताअोको पूरा करनेके लिए हर जगह नये विभाग खोलने पड़े और अच्छा वेतन नियत करना पडा। आर्थिक कष्टके बढ जानेसे पुरस्कार-वृद्धिका प्रश्न भी उपस्थित हो गया। जिन विभागोको आर्थिक महत्त्व दिया गया, उनका वेतन भी ज्यादा रखा गया । युद्धके समय जब व्यय घटानेका प्रश्न आता है तव शिक्षापर जो रकम खर्च की जाती है उसमे ही सबसे पहले कमी की जाती है । संस्कृतिपर ही पहला वार होता है, कमसे कम उसके विस्तारकी वात युद्धके जमानेमे नही सोची जाती । समाजकी रक्षाका प्रश्न प्रधानता ले लेता है और इस नयी मनोवृत्तिके कारण शिक्षाकी उपेक्षा की जाती है । इसमे वडा खतरा है । हमको यह सोचना होगा कि एक नूतन समाजका गठन करनेके लिए क्या परमावश्यक है । रक्षाका विधान करना पहला कर्तव्य है, किन्तु इसके पश्चात् अन्न-वस्त्रका प्रवन्ध तथा शिक्षाकी व्यवस्था होनी चाहिये । हमारे देशमे जहाँ केवल १५ प्रतिशत लोग साक्षर है, वहाँ तो यह प्रश्न बहुत ही महत्त्व रखता है। क्या धार्मिक शिक्षा हमारी शिक्षा-संस्थाओं- द्वारा दी जानी चाहिये? पुरानी दुनियामे धार्मिक शिक्षा वच्चोकी शिक्षाका एक अविच्छिन्न अग मानी जाती थी। देवमन्दिर या गिरजाघर समाजके जीवनका केन्द्र हुआ करता था और जिस धर्मके माननेवाले जो लोग होते उसी धर्मके द्वारा उनके मन, बुद्धि और हृदयोका नियमन होता था। सत्तत्वका स्वरूप तथा पदार्थोके मूल्योका मान इत्यादि सभी वातें धार्मिक विश्वाससे ही निर्धारित होती थी। पारलौकिक जीवनकी आशा और मोक्ष पानेका आश्वासन होनेसे मनुष्य ऐहिक जीवनका भार प्रसन्न और धीर होकर वहन करते थे। पर धीरे-धीरे विज्ञानने आकर यह सारा ढंग बदल डाला और धर्मके स्थानमे वुद्धिका युग प्रवर्तित हुआ । विज्ञान और उसकी कार्यप्रणालीके प्रगमनके साथ मनुप्यका ऐहिक जीवन सुखी १ 'जनवाणी' मई सन् १९४७ ई०