पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३४४

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क्या धार्मिक शिक्षा. दी जानी चाहिये ३२६ लिए समान चीजोको आगे करे जो सवको मिलाती और विभिन्न प्रकारके लोगोको एकत्वमे बाँधती है। स्कूलोके पाठ्यक्रममे धार्मिक शिक्षाका समावेश करनेसे ये साम्प्रदायिक भेद विशेषरूपसे उन वच्चोके सामने आयेगे जिन्हे इन भेदोका अभी कोई ज्ञान नहीं है । यह कहा जा सकता है कि धार्मिक शिक्षाका एक स्वास्थ्यकर प्रभाव होता है और धर्माध्यापक यदि योग्य हुए तो धार्मिक शिक्षाका कोई वैसा अनर्थकारी परिणाम नही हो सकता । पर यह कहते हुए लोग इस बातको भूल जाते है कि ऐसे धर्माध्यापक जो धर्मके वाह्यागकी अपेक्षा मूलतत्त्वके अधिक विश्वासी है, बहुत ही कम है । कुछ लोगोका यह वीद्धिक विश्वास हो सकता है कि सब धर्म मूलत एक है, पर इनके हृदयोमे भी अपने ही वैयक्तिक धर्मकी श्रेष्ठताका विश्वास जमा हुआ होता है। प्राजके शिक्षित लोग तो, धर्म शब्दके वास्तविक अर्थमे, धार्मिक रह ही नही गये है, यद्यपि अपने राजनीतिक स्वार्थोके साधनमें इन धार्मिक विश्वासो और भावोसे काम लेते उन्हें कोई संकोच नही होता । फिर यह वात भी हमे ध्यानमे रखनी चाहिये कि कोई वच्चा धर्म और चरित्नकी बाते मौखिक शिक्षासे नही सीखा करता । उसके चारो ओर जो परिस्थिति होती है उसीसे उसको प्रेरणा मिलती है। दर्जेमे वैठकर जो मौखिक शिक्षा वह कानसे सुनता है उससे उसका चरित्र उतना प्रभावित नहीं होता, बल्कि उसके अध्यापको, माता-पिताओं और पड़ोसियोके चरित्र उसपर अपना पूरा प्रभाव डालते है । अत , उदाहरणार्थ, यदि हम अपने बच्चोको सेवा-भाव सिखाना चाहे तो सेवा-भावके गुणोकी प्रशसा करनेसे बच्चोके वैसे भाव नही वनेगे, बल्कि उन्हे सेवा करनेके अवसर देनेसे दूसरोकी सेवा करनेमे जो सुख और अनान्द है वह उन्हें प्राप्त होगा। साम्प्रदायिकताको दूर करनेका एक मात्र उपाय सवका जीवनध्येय. एकसा बनाना और सवके लिए सहयोगयुक्त प्रयासके अवसर निर्माण करना है । पथ-भ्रष्ट युवकको उसकी भूल दिखाने और रास्तेपर ले आनेका तरीका यही है कि कर्ममय जीवनकी उसकी सहज इच्छाको नष्ट करे और राष्ट्रके हितार्थ और शिष्टताके साथ अपने जीवन-निर्वाहार्थ उसे कोई उपयोगी कार्य सौपे । हिन्दुस्तानका इतिहास एक नवीन कार्यको लेकर पुन लिखना होगा और हमारी समान सास्कृतिक परम्परा एक एक बच्चेतकं पहुँचानी होगी। सामाजिक लोकतन्त्र हमे वह विश्वास प्रदान करता है जिससे हम जी सकते है और इस विश्वासके वलपर मानव अखण्डता साध सकते है और अन्तमें उन कृत्रिम दीवारोको ढाह सकते हैं जो हमलोगोको एक दूसरेसे अलग करनेके लिए धर्म और जात-पातने खडी की है। हमे अपनी समान राष्ट्रीयताको सिद्ध करनेके लिए किसी इलहामसे कोई सान्त्वना पानेकी आवश्यकता नही है । इलहामोके दिन लद गये। उनकी परख हो चुकी, वे खरे नहीं उतरे । हमारा यह नवीन युग हमसे वह नया कार्य कराना चाहता है जो वर्तमान धर्मसम्प्रदायोके द्वारा पूरा नही हो सकता । किसी समन्वययुक्त धर्मसे भी काम नहीं चलेगा चाहे वह कितना ही प्रबुद्ध और वैज्ञानिक क्यो न हो । धर्म और विज्ञानका कोई युक्तिसगत मेल वैठाना भी सम्भव नही प्रतीत होता । लोकतन्त्र और मानव तथा सामाजिक मानसे मूलांकन, इन दो वातोपर विश्वास ही