पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३३२ राष्ट्रीयता और समाजवाद मानव-जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमे उनको प्रतिष्ठित करना आवश्यक है। अगर कोई नवजात राष्ट्र दूसरे देशोकी लोकतान्त्रिक शासन-पद्धतिका ही अनुकरण करता है और केवल उसीको प्रगतिका सूचक मान लेता है, तो वह कदापि सच्चा लोकतान्त्रिक शासन स्थापित करनेमे सफल नही हो सकता। इसके लिए देशमे लोकतान्त्रिक भावनाका होना आवश्यक है । लोकतन्त्र मनुष्यके अभ्यास और परम्पराका विषय है जो काफी लम्बे और कठिन प्रयासके फलस्वरूप प्राप्त होती है। लोकतान्त्रिक परम्पराका निर्माण किया जाता है और और जनतामे तदनुकूल भावनाएँ विकसित की जाती है । जो समाज विविध धर्म और जातिगत भेदभावसे जर्जर हो गया है और जिसमे कुल, सम्पत्ति, जाति और धर्मपर आधारित विशेष स्वार्थोकी सृष्टि हो गयी है, उसके अन्दर लोकतान्त्रिक जीवनचर्याका निर्माण करनेके लिए और भी सजग प्रयासकी आवश्यकता होती है । जनतामे लोकतान्त्रिक आदर्शोके प्रति सुदृढ आस्था होनी चाहिये और उनसे ही उसका सारा जीवन-क्रम और व्यवहार अनुप्राणित होना चाहिये। यह सत्य है कि जबतक जनतामे सामाजिक और राजनीतिक चेतना उत्पन्न नही हो जाती तबतक लोकतान्त्रिक पद्धतिकी सफलता सम्भव नही है । इसका तो उद्देश्य ही यही है कि राष्ट्रके राजनीतिक जीवनमे सवलोग विवेकपूर्वक और सक्रिय रूपसे भाग लें । राजनीतिक और आर्थिक समस्याअोके प्रति जनताकी उदासीनताको दूर करना होगा और सार्वजनिक कार्योमे उसकी दिलचस्पी पैदा करनी होगी। इसलिए लोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्थाकी स्थापनाके लिए व्यापक शिक्षा सवसे आवश्यक है। जनताकी सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी कमियोको सर्वप्रथम दूर करना पडेगा और सभी श्रेणियोमे साक्षरताका व्यापक प्रसार करना होगा । सास्कृतिक दृप्टिसे पिछडी श्रेणियो और क्षेत्रोपर विशेप ध्यान देना होगा और उनको शीघ्रातिशीघ्र सुसंस्कृत समाजके समकक्ष लानेके लिए कोई भी कसर उठा नही रखनी चाहिये । जवतक जन-सस्कृतिका निर्माण नही हो जाता तबतक ऐसे स्वतन्त्र समाजकी स्थापना भी नही हो सकती है जिसमे प्रत्येक नागरिक सार्वजनिक कल्याणके लिए परस्पर सहयोग कर सके । किन्तु साक्षरता इस दिशामे पहला कदम है । इससे केवल बुद्धिका कपाट खुल जाता है। साक्षर हो जानेपर कोई व्यक्ति केवल साधारण किस्से-कहानियाँ पढ सकता है, किन्तु वह शिक्षित नही हो सकता और न अपने व्यवहारोको सामाजिक और विवेकयुक्त ही कर सकता है । वह राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओका भी अध्ययन नही कर सकता जिनसे आज चारो ओर उथल-पुथल मची हुई है । ऐसी साक्षरतासे व्यावसायिक वर्ग अनुचित लाभ उठाते है और केवल मुनाफा कमानेके लिए ढेरके ढेर ऐसे सस्ते और भद्दे साहित्यको प्रकाशित करते है जिनसे केवल मनुष्यकी दुष्प्रवृत्तियोको उत्तेजना मिलती है। इस प्रकारके पुस्तक-व्यवहारसे जिसकी आजकल काफी धूम है, जनता शिक्षित नहीं होती, बल्कि पथभ्रष्ट होती है। केवल साक्षर समाजसे भी काफी खतरा है और आसानीसे वह अधिनायको और अधिकाराकाक्षियोके जालमे फंस सकता है । श्रीवालासने ठीक कहा है कि “राजनीति उपचेतन समाजका दुरुपयोग है ।" समाजके ये