पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३४९

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३३४ राष्ट्रीयता और समाजवाद करनेके लिए सदैव प्रयत्न करना चाहिये । यद्यपि यह कार्य महान् है, किन्तु पूर्ण और सम्पन्न जीवन व्यतीत करनेके लिए इसकी पूर्ति यावश्यक है । अगर हम साहसके माथ और सचेत होकर अपने कर्तव्यका पालन करेंगे तो निस्सन्देह हमारा भविष्य उज्वल है । इस दृप्टिसे हमारी शिक्षा प्रणालीमें क्रान्तिकारी परिवर्तन होना चाहिये । मानव- कल्याणके हेतु अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सहयोग प्राप्त करने के लिए एक नये जीवन-दर्शन और नये प्रयासकी आवश्यकता है । तात्पर्य यह कि हमारी जन-शिक्षा योजना इस प्रकारकी होनी चाहिये जिससे जीवनके प्रति स्वस्थ और असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण बन सके, उसमें लोकतान्त्रिक और मानवीय मूल्योकी प्रतिप्ठा हो और सामाजिक व्यवहारके नवीन सस्थानोका निर्माण हो । साथ ही गिक्षामें जीवन-पर्यन्त-प्रगति होनी चाहिये । हमलोग एक परिवर्तनशील जगत्मे रहते है । इमलिए समय-ममयपर हमारे मनोभावो और विचारोंकी पुनर्व्यवस्था आवश्यक है। साहित्यिक शिक्षाके अतिरिक्त राज्यका यह कर्तव्य है कि वह समय-समयपर जनताको महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक समस्यायोंकी भी शिक्षा दे । उदाहरणस्वरूप सरकारको चाहिये था कि वह विधान परिपद्वारा प्रस्तुत संविधानपर प्रत्येक नगर और गांवमे सार्वजनिक रूपसे विचारविमर्श करनेकी व्यवस्था करती। वास्तवमे यह जनताके लिए काफी उपयोगी शिक्षा होती । यद्यपि विधान परिपका संगठन वालिग मताधिकारपर नही हुअा हे और जनतासे उसे सत्ता प्राप्त नही हुई है, किन्तु अगर सरकार देशभरमे विधानपर सार्वजनिक रूपसे विचार-विमर्शका अवसर और मुविधा प्रदान करती तथा जनतामे इसकी ओर दिलचस्पी उत्पन्न करती तो उससे विधानको कुछ अाधारभूत त्रुटियोका अवश्य परिमार्जन हो जाता । सन् १९३६ के सोवियत् विधानपर इसी प्रकार पहले नाम-पञ्चायतो और मजदूर-पंचायतोहारा विचार-विमर्ग हुया था। इससे उनके अन्दर काफी चेतना आ गयी थी । इस प्रकार वहाँ राज्यकी पोरसे जनताको सचमुच एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राजनैतिक शिक्षा दी गयी थी। इसके विपरीत हमारे देशमे नया विधान चन्द दिनोमे तैयार हो जायगा, किन्तु उसमे जनताको जरा भी दिलचस्पी नहीं है । इसके लिए राजनीतिक प्रश्नोपर जनताकी उदासीनताका वहाना विलकुल व्यर्थ है। जनता विलकुल अनभिज्ञ है और विधान-निर्माणमे दिलचस्पी न लेनेका उसपर आरोप नहीं लगाया जा सकता। ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नोपर जिज्ञासा उत्पन्न करना सरकारका प्रमुख कर्तव्य है । डिसरैलीके शब्दोमे जनता-जनार्दनकी शिक्षा हमारा प्रधान कर्तव्य हे, और उनके प्रति अपने इस कर्तव्यको पूरा करनेमे हम अभीतक असफल रहे है । हमें जनताको यह बताना है कि किस प्रकार आज उसका भाग्य-निर्माण हो रहा है, उसके अधिकारी और कर्तव्योका घोपणा-पत्र तैयार हो रहा है। इसी तरहसे हम उनके अन्दर -उन नवीन अधिकारो और उद्देश्योके प्रति चेतना उत्पन्न कर सकेंगे जो भविष्यमें स्वतन्त्र हिन्दुस्तानकी आधारशिला होगी। कहनेका तात्पर्य यह है कि राज्यको ऐसे सभी अवसरोका जव कि महत्त्वपूर्ण प्रश्नोपर जनताको शिक्षित किया जा सकता है, उपयोग करना चाहिये । साक्षरता-आन्दोलनकी 'अपेक्षा यह जन-शिक्षाका अधिक प्रभावशाली तरीका होगा। साथ ही इस कार्यमें राज्यको