पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३५०

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जन-शिक्षा ३३५ शिक्षाके सभी साधनोका उपयोग करना चाहिये । हिन्दुस्तानमे जन-शिक्षाकी केवल योजना तैयार करनेके अतिरिक्त और वहुतसे कार्य करने है । लोकतान्त्रिक विचारधारामें समानताका भाव सन्निहित है । यह केवल राजनीतिक विषयोतक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसकी परिणति जीवनके अन्य क्षेत्रोकी ओर भी है। इसके लिए शिक्षा और जीवन-निर्वाहका समान अवसर होना चाहिये और कुल, सम्पत्ति तथा अर्थनीतिपर आधारित भेदभावोका उन्मूलन और सामाजिक न्यायका होना भी आवश्यक है । लोकतन्त्रका क्षेत्र तवतक विस्तृत होता रहेगा जवतक कि सम्पूर्ण मानवजीवनमे यह व्याप्त न हो जाय । हमारे देशमे अभी लोकतान्त्रिक प्रगतिका केवल श्रीगणेश हुआ है । यहाँ तो सामाजिक असमानता और वर्णभेद ही हिन्दू-समाजका आधार रहा है । इसके बहुसंख्यक समुदायको अभीतक सभ्यताके सूर्योदयका दर्शन भी नही हुआ है और हमलोग उनके साथ अव भी मानवेतर प्राणियोके समान वर्ताव करते है । आदिवासियोकी जो सास्कृतिक दृष्टिसे बहुत पिछडे हुए है, नैतिक और भौतिक अवस्था सुधारनेके लिए अभीतक कुछ भी प्रयत्न नही किया गया है । ये सामाजिक और सास्कृतिक असमानताएँ जन-जीवनमे लोकतान्त्रिक भावनायोके विकासमे वहुत बडी बाधा है । और जबतक इन सस्थानो और परम्परायोके जिनपर यह भेदभाव और अमानुपिक व्यवहार कायम है, विरुद्ध पूरी शक्तिसे अनवरत संघर्ष नही किया जायगा, तबतक नये लक्ष्यकी प्राप्तिकी अोर प्रगति असम्भव है । जन-शिक्षाके प्रसार और ऐसे कानूनोके निर्माणके साथ ही, जिससे तमाम सामाजिक असमानताओका उन्मूलन हो जाता है, हमे ग्रामीण जनतामे लोकतान्त्रिक विचारो और व्यवहारोको विकसित करनेके लिए देहातोमे जोरदार सहकारी आन्दोलन चलानेकी आवश्यकता पड़ेगी। सहकारितासे केवल यह ग्रार्थिक लाभ ही नहीं है कि वह मध्यम श्रेणीके मुनाफेका अन्त कर कृपिको अधिक लाभदायक बना देती है, बल्कि इसके द्वारा नवीन सामाजिक सम्वन्धोका एक सस्थान भी तैयार होता है जो प्रतिस्पर्धाके वजाय सहयोगपर आश्रित है और जनतामे भ्रातृभाव उत्पन्न करता है । इन उद्देश्योकी प्राप्तिके लिए गैरसरकारी सस्थाएँ जो भी काम कर रही हो, किन्तु राज्यका प्रधान कर्तव्य है कि वह अपनी राजनीतिक विचारधाराके मौलिक सिद्धान्तो और तदनुकूल आचार-शास्त्रकी जनताको व्यापक शिक्षा दे । इस तरीकेसे ही जनताके सामाजिक कार्य विवेकपूर्वक होगे और इसी प्रकारकी शिक्षा उन प्रतिक्रियावादी शक्तियो- द्वारा उत्पन्न सकटसे भी राज्यकी रक्षा कर सकेगी जो समय-समयपर अपना सिर उठाकर उन मानवीय मूल्योको ही विनष्ट कर देना चाहती है जिनकी सुरक्षा तथा विकासका दायित्व राज्यपर है। १. आल इण्डिया रेडियो, लखनऊ, सन् १९४८ ई०