पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्यापकोका कर्तव्य ३४७ पाठशालाओके लिए अध्यापकोकी कमी है और इसका कारण यही बताया जाता है कि इस वृत्तिमे आर्थिक लाभकी कमीके कारण पर्याप्त आकर्षण नही रहा । इस युगमे जव कि जीवनकी वहुमूल्य वस्तुएँ धनिकोके ही घर भरती है और धन ही सब बातोका मापदण्ड बन गया है तव वेचारा अध्यापक अपने वेतनमे वृद्धि और अपने जीवनका स्तर सुधारनेके लिए आन्दोलन करता है तो इसमे वह दोपका भागी नहीं। अध्यापक समाजकी धुरी है, क्योकि शिक्षा राष्ट्रके पुनरुज्जीवनकी सभी योजनाअोका महत्त्वपूर्ण अंग है । अतएव सरकार और स्थानीय अधिकारी दोनोके लिए उचित है कि ऐसी व्यवस्था करे कि नयी योजनामे अध्यापकवृन्द अपने उचित स्थान एवं स्तरपर आसीन हो। अच्छीसे अच्छी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये जिसमे अध्यापक अपनी अध्यापनवृत्ति त्यागकर अच्छे वेतन और जीवनके उत्तम उपकरणोकी प्राप्तिके लिए अन्यत्र न चले जायँ । जव मै देखता हूँ कि हमारे उत्तम-से-उत्तम अध्यापकोमेसे लोग विश्व- विद्यालय छोडकर सरकारी नौकरी या उद्योग-धन्धोमे काम करनेके लिए चले जाते हैं जिसके कारण राष्ट्रकी शिक्षाको बडा धक्का पहुँचता है तो मुझे बड़ी वेदना होती है। इस प्रसगमे मै यह भी कह देना चाहता हूँ कि सारे देशमे विश्वविद्यालयोके अध्यापकोंका केवल एक ही सगठन होना वाछनीय है ।' मुझे मालूम हुआ है कि अखिल भारतीय fagafaelltyTE219499 ( All India University Teachers' Federation ) नामकी एक सस्थाका जन्म हो चुका है । गत वर्ष इसका सम्गेलन हुआ था । उसने अपना विधान बना लिया है और आगामी वर्पके प्रारम्भमे ही यह अपना प्रथम अधिवेशन करने जा रहा है । यह सत्य है कि कुछ विश्वविद्यालय अभी इसमे सम्मिलित नहीं हुए है और अभी इसका कार्य ठीक तरहसे प्रारम्भ नही हो पाया है। आशा है कि हमारा यह सम्मेलन इसपर ध्यान देगा और यह स्थिति नही आने देगा कि ऐसी दो सस्थाएँ वन जायँ जो परस्पर प्रतिद्वन्द्विता एव ईर्ष्या करने लगे। दोनो सस्थाअोके सूत्रधारोको चाहिये कि दोनोके सगठनको एक और सुसगत करनेके लिए जो कुछ सत्यताके साथ सम्भव हो, अवश्य करे । मै नही जानता कि इनके वीच दे कौनसे महान अन्तर है, जिनके कारण दोनो एक दूसरेसे अभीतक पृथक् है, चाहे जो अन्तर हो, वे इतने महत् नही हो सकते कि उनके कारण ऐक्य स्थापित न हो सके । मै नही समझता कि उनके दृष्टिकोण भिन्न है। जब उद्देश्यो और ध्येयोमे ऐक्य है तो कोई कारण नहीं है कि सगठनगत ऐक्य क्यो न स्थापित हो । यदि दोनो ओर सद्भावना हो, तो मुझे आशा है कि इस सस्थाके सगठनके पूर्व ही दोनो सस्थाएँ मिलकर एक हो जायेंगी। स्थानिक स्वार्थकी तथा ऐसी ही अन्य वाते कभी- कभी व्यवधान उपस्थित कर सकती है, पर ये बाते ऐसी नही है कि उनका अतिक्रमण सम्भव न हो । मै इस उत्तम कार्यमे अपनी सेवा अर्पित करता हूँ और आपलोगोसे तथा उस दूसरी सस्थाके सदस्योसे अपील करता हूँ कि इस उद्देश्यकी सिद्धिमें मेरे साथ सहयोग करे । प्राशा है, आपलोग इस विषयपर एक प्रस्ताव रखेगे और ऐसे नियम भी निर्धारित करेगे जिनके द्वारा विश्वविद्यालयोके अध्यापकोके वीच ऐक्य स्थापित हो सके । यदि