अध्यापकोका कर्तव्य ३४६ राजनीतिक और अर्थशास्त्र-सम्बन्धी प्रश्नोपर वाद-विवाद होता है और जबतक किसीको उसकी भाषाके माध्यमसे अपने सर्वोत्तम विचार व्यक्त करनेका अभ्यास नही होता, तवतक उसे परामर्शोमे भाग लेनेमे सकोच होगा और यदि किसी प्रकार उसने कुछ साहस किया भी तो उसका भाषण भटकता हुआ और अप्रभावशाली होगा और इस प्रकार वह सदस्य भाषणकलाकी दक्षतासे कोई प्रभाव नही पैदा कर सकेगा। ऐसे सदस्यमे एक कमी सदैव बनी रहेगी। सम्भव है कि उसमे विपय-विशेपके सम्बन्धमे चलनेवाले विचार विमर्शमे महत्वपूर्ण योग देनेकी क्षमता हो, पर सभामे उसके मतका कोई प्रभाव इसलिए नही पडेगा कि वह राष्ट्रभापामे अपने विचार उन्मुक्तरूपसे विना किसी हिचकिचाहटके व्यक्त करनेकी क्षमता नही रखता । जव राष्ट्रका सव कार्य राष्ट्रभाषाके द्वारा होने लगता है तभी राष्ट्रके भाव, और आदर्श सव एक जीवन बनते है। सोवियत रूसका उदाहरण हमारे सामने विद्यमान है । वहाँ रूसी भापा प्रान्तीय भाषाअोके साथ ही एक अनिवार्य विषयकी भाँति प्रारम्भसे ही पढ़ायी जाती है। यदि कोई अपनी भापाके विपयमे पक्षपात रखता है तो यह वात स्वाभाविक ही है और समझमे आने लायक है । मै यह भी जानता हूँ कि जिन लोगोकी मातृभाषा पर्याप्त रूपसे समृद्ध है, उनके लिए तो किसी दूसरी भापाको उच्चतर शिक्षाके माध्यमके रूपमें स्वीकार करना और भी कठिन हो जाता है । किन्तु जो लोग सदैव यह समझते रहे है कि अग्रेजोसे हमारा सम्पर्क भगवानकी देन और छिपा हुआ वरदान है, और जिन्होने अग्रेजी शिक्षाकी बडी प्रशसा इसीलिए की है कि उसने देशके एकसूत्रीकरणमे बडा काम किया है, उन्हे तो हमारे राष्ट्रीय जीवनकी नयी व्यवस्थामे राष्ट्रभाषाको वही स्थान देनेमे कोई संकोच न होना हिये । मै यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरे प्रस्तावकी परिधि बहुत सीमित है, क्योकि मै यह नही चाहता कि राष्ट्रभापा माध्यमिक शिक्षाके माध्यमके रूपमें अथवा प्रान्तीय सरकारोके शासनके कामोकी भाषाके रूपमे स्वीकार की जाय । मैं समझता हूँ कि आज शायद यह सम्भव भी नहीं है कि दूसरे प्रान्तोके लोगोको यह प्रस्ताव स्वीकार्य हो सके । किन्तु मुझे निश्चय है कि बहुत दिनोके पूर्व ही उन्हे स्वानुभवसे यह विश्वास हो जायगा कि हमलोगोमेसे कुछने जो प्रस्ताव राष्ट्रके सामने रखा है उसका अनुसरण किये बिना अपने देशका काम आगे नही चलेगा। फिर भी, मैं कहता हूँ, हमें इस विषयमे अपने दिमाग खुले रखने चाहिये और स्थानीय भावनाप्रोको ऐसे समय अपने ऊपर अधिकार नही जमाने देना चाहिये जव हम राष्ट्रीय महत्वकी किसी समस्याके विषयमे कोई निर्णय करते हो । मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि जवतक कि हममे विश्वविद्यालयोके लिए शिक्षाके माध्यमके विपयमे एकमत नही होता तबतकके लिए राष्ट्रीय महासभामे सदस्योको उसी भाषामे बोलनेकी स्वतन्त्रता दी जाय जिसमे वे बोलना चाहे । स्पष्ट है कि ऐसे मामलोमे कोई बात अनिवार्य नही की जा सकती और दूसरोके मनमे विश्वास पैदा करके ही तथा प्रचारद्वारा ही कार्यसिद्धिकी आशा की जा सकती है । जिस प्रकार राष्ट्रभाषाको उच्चतर शिक्षाके माध्यमके रूपमे स्वीकार कर लेनेसे सारे देशके लिए विचार करने और उसे व्यक्त करनेके लिए एक माध्यम मिल जायगा उसी
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